Monday, February 16, 2009

संदूक

आज फ़िर ,
उस कोने में पड़े,
धूल लगे संदूक को,
हाथों से झाड़ा, तो,
धूल आंखों में चुभ गई।
....संदूक का कोई नाम नहीं होता
..पर इस संदूक में एक खुरचा सा नाम था ।
सफ़ेद पेंट से लिखा।
तुम्हारा था या मेरा,
पढ़ा नही जाता है अब।

खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही बेतरतीब पड़ी ...
'ज़िन्दगी'।
मुझे याद है......

...माँ ने,
'उपहार' में दी थी।
पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है।
पर आज भी ,जब पहन के देखता
तो, बड़ी ही लगती है,
शायद...

...कभी फिट आ जाए।

नीचे उसके,
तह करके सलीके से रखा हुआ है...

...'बचपन' ।
उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख ,

कागज़ के रंग,

कुछ कंचे ,

उलझा हुआ मंझा,

और,
और न जाने क्या क्या....
कपड़े छोटे होते थे बचपन में,
जेब बड़ी....

कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये 'इमानदारी' सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी मुफलिसी के, और कभी बेचारगी के,
पर, इसकी सिलाई उधड गई थी, एक दिन।
....जब भूख का खूंटा लगा इसमे।

उसको हटाया,
तो नीचे पड़ी हुई थी 'जवानी'
उसका रंग
...उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये....
अब पता नही...

कौनसा नया रंग हो गया है?

बगल में ही पड़ी हुई थी 'आवारगी',
....उसमें से,
अब भी,
शराब की बू आती है।

४-५ सफ़ेद, गोल,
खुशियों की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,संदूक में
पर वो खुशियाँ...

.... उड़ गई शायद।

याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था,
एक जोड़ी वफाएं खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर मुझपे ये अच्छी नही लगती।
और फ़िर...
इनका 'Fashion' भी,
...नहीं रहा।
'Joker' जैसा लगूंगा इसको लपेटकर।

...और ये शायद 'मुस्कान' है।
तुम,
कहती थी न....
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ ...
इसको.....

'जमाने' और 'जिम्मेदारियों' के बीच....

रख दिया था ना ।
तब से पेहेनना छोड़ दी।

अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'।
'valentine day' में,
दिया था तुमने।

दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में, सिकुड़ जाता था।
हाँ...
खारा पानी ख़राब होता है, इसके लिए,
भाभी ने बताया भी था,
...पर आखें ये न जानती थी।

चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा, देखा,
यादें तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल धवल,
Fitting भी बिल्कुल
...लगता था,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से जैसे,

कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर...
चलो,आज इसे ही...

पहन लेता हूँ....

- दर्पण साह

3 comments:

  1. one of the best kavita tht i have ever read

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  2. दीवानगी ऐसी कि यहाँ भी आकर पढ़ लिया ...आँखें चौंधिया रही हैं
    ...कुछ यूं रौशन है ये नज़्म

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