Sunday, August 9, 2009

ग़ज़ल

लहू पहाड़ के दिल का, नदी में शामिल है,
तुम्हारा दर्द हमारी ख़ुशी में शामिल है.
तुम अपना दर्द अलग से दिखा न पाओगे,
तेरा जो दर्द है वो मुझी में शामिल है.

गुजरे लम्हों को मैं अक्सर ढूँढती मिल जाऊँगी,
जिस्म से भी मैं तुम्हे अक्सर जुदा मिल जाऊँगी.
दूर कितनी भी रहूँ, खोलोगे जब भी आँख तुम,
मैं सिरहाने पर तुम्हारे जागती मिल जाऊँगी.
घर के बाहर जब कदम रखोगे अपना एक भी,
बनके मैं तुमको तुम्हारा रास्ता मिल जाऊँगी.
मुझपे मौसम कोई भी गुज़रे ज़रा भी डर नहीं,
खुश्क टहनी पर भी तुमको मैं हरी मिल जाऊँगी.
तुम ख्यालों में सही आवाज़ देके देखना,
घर के बाहर मैं तुम्हें आती हुई मिल जाऊँगी.
गर तसब्बुर भी मेरे इक शेर का तुमने किया,
सुबह घर कि दीवारों पर लिखी हुई मिल जाऊँगी.

'बीती ख़ुशी'

6 comments:

  1. भाई वाह क्या भाव है। लाजवाब रचना।

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  2. aaj ki matlabparast dunia me roohani prem ko jis tarah jiya hai aapne, use theek vaise hi bayan bhi kiya hai is gazal me. kiski tareef karoon? ik-ik ashar ki ya poori gazal likhne wale ki, magar afsos ye ki shayad aapko pata bhi nahin ki aapke sachche aur khoobsurat dil se nikli ye duaayen aaj dunia padh rahi hai. thanks 'beeti khushi'...

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  3. kaajwaab hai prem ki abhiwyakti ......atisundar ......man kahi kho sa gaya

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  4. बीती ख़ुशी,
    क्या प्रतिक्रिया दूँ..ग़ज़ल इतनी खुबसूरत है की शब्दों बंधना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है शायद मेरे लिए..
    एक -एक अशआर अपने आप में जिंदा है , और अपने होने का अहसास करा रहा है. कोई किसी को इस तरह भी मुहब्बत कर सकता है ग़ज़ल के आईने में..
    अगर मैं किसी एक शेर की तारीफ करूँ तो दुसरे के साथ बेमानी होगी.
    हाले दिल लफ्जों में बखूबी पिरोया गया है...एक अजीब सा अहसास अब भी मेरे दिल में है..एक ख़ुशी और ग़म की मिलाजुला असर.
    लाख कोई अपने आंसू रोके मगर वो रुक ही नहीं सकते
    खुदा आपको ऐसी ही ढेरों रचना रचने की ताक़त दे और साहित्य समाज को एक खुबसूरत अदब पढने को मिले.

    शाहिद "अजनबी"

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  5. इस ग़ज़ल (बीती ख़ुशी) में काफ़िया ठीक नहीं है.

    रेटिंग ३/५

    महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’

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  6. बेहतरीन ग़ज़ल। बहुत-बहुत बधाई।

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