Tuesday, May 26, 2009

मोक्ष


परिक्रमा
करते थे प्रश्न,
अँधेरे मन के
कोटर के,
उत्तर कोई निकले सार्थक,
जिसको
हथिया के प्राप्त करुँ,
विचलित ह्रदय
संतृप्त करुँ।
किस राह को
मैं पा जाऊँ?
किसपे
कर विश्वास चला जाऊँ?
किसको भरूँ,
अंक में मैं,
जीवन-दर्शन या जग-पीड़ा?
करुँ नर-सेवा या
नारायण?
बनूँ किसका कर्त्तव्य-परायण?
चलूँ पथ
मोक्ष प्राप्ति का मैं,
या पीड़ा दीनों की हरूँ हरी?
गुँथा हुआ मैं
ग्रंथि में,
था अंतर्मन टटोल रहा बैठा।
सहसा घिर आये मेघा
आबनूस रंग चढ़े हुए,
गरजे,
बरसे,
कौंधी बिजली,
मुझे वज्र इन्द्र का याद हुआ,
त्याग दधीचि का सार हुआ।
तब ज्ञान हुआ जो
करनी का,
जीते जी मोक्ष प्राप्त हुआ।

दीपक 'मशाल'

1 comment:

  1. दीपक जी,

    किसी अंतर्द्वंद को जो कर्म नियति के बीच होता है बड़ी सार्थकता से कविता जीती है।

    बहुत अच्छी कविता के लिये बधाई।

    साथ ही साथ श्री मुहम्म्द शाकिर मंसूरी "अज़नबी" साहब की शुक्रगुजारी कि बहुत ही नेक प्रयास किया है हिन्दी-हिन्दुस्तान के लिये।

    सादर,

    मुकेश कुमार तिवारी

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