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Thursday, October 1, 2009

ग़ज़ल



शजर पर एक ही पत्ता बचा है
हवा की आँख में चुभने लगा है ,
नदी दम तोड़ बैठी तषनगी से
समंदर बारिशों में भीगता है,
कभी जुगनू कभी तितली के पीछे
मेरा बचपन अभी तक भागता है,
सभी के ख़ून में ग़ैरत नही पर
लहू सब की रगों में दोड़ता है,
जवानी क्या मेरे बेटे पे आई
मेरी आँखों में आँखे डालता है,
चलो हम भी किनारे बैठ जायें
ग़ज़ल ग़ालिब सी दरिया गा रहा है। 
- जतिंदर 'परवाज़'
छायांकन- दीपक 'मशाल'

Wednesday, September 16, 2009

ग़ज़ल

ज़रा सी देर में दिलकश नजारा डूब जायेगा
ये सूरज देखना सारे का सारा डूब जायेगा
नजाने फिर भी क्यों साहिल पे तेरा नाम लिखते हैं
हमें मालूम है इक दिन किनारा डूब जायेगा
सफ़ीना हो के हो पत्थर हैं हम अंजाम से वाक़िफ़
तुम्हारा तैर जायेगा हमारा डूब जायेगा
समन्दर के सफ़र में क़िस्मतें पहलू बदलती हैं
अगर तिनके का होगा तो सहारा डूब जायेगा
मिसालें दे रहे थे लोग जिसकी कल तलक हमको
किसे मालूम था वो भी सितारा डूब जायेगा

-जतिन्दर परवाज़

चित्रांकन- दीपक 'मशाल'

बाबू जी, कृपया टिप्पणी दे दीजिये...

Wednesday, August 26, 2009

ग़ज़ल


आँखें पलकें गाल भिगोना ठीक नहीं
छोटी-मोटी बात पे रोना ठीक नहीं
गुमसुम तन्हा क्यों बैठे हो सब पूछें
इतना भी संज़ीदा होना ठीक नहीं
कुछ और सोच ज़रीया उस को पाने का
जंतर-मंत्र जादू-टोना ठीक नहीं
अब तो उस को भूल ही जाना बेहतर है
सारी उम्र का रोना-धोना ठीक नहीं
मुस्तक़बिल के ख़्वाबों की भी फिक्र करो
यादों के ही हार पिरोना ठीक नहीं
दिल का मोल तो बस दिल ही हो सकता है
हीरे-मोती चांदी-सोना ठीक नहीं
कब तक दिल पर बोझ उठायोगे ‘परवाज़’
माज़ी के ज़ख़्मों को ढ़ोना ठीक नहीं।
जनाब जतिंदर 'परवाज़'
चित्रांकन - दीपक 'मशाल'
महत्वपूर्ण सूचना- ब्लॉग पर आने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया, बस जाने से पहले एक गुजारिश है साहब की
'कुछ तो कहते जाइये जो याद आप हमको भी रहें, अच्छा नहीं तो बुरा सही पर कुछ तो लिखते जाइये। (टिप्पणी)

Wednesday, August 19, 2009

गुमसम तनहा बैठा होगा...

बहुत ही सरल तरीके से सीधे दिल में उतर जाने वाली बात कहने वाले मुखर कवि जतिंदर 'परवाज़' का नई कलम पर आगाज़ देखिये-

गुमसम तनहा बैठा होगा
सिगरट के कश भरता होगा
उसने खिड़की खोली होगी
और गली में देखा होगा
ज़ोर से मेरा दिल धड़का है
उस ने मुझ को सोचा होगा
सच बतलाना कैसा है वो
तुम ने उस को देखा होगा
मैं तो हँसना भूल गया हूँ
वो भी शायद रोता होगा
ठंडी रात में आग जला कर
मेरा रास्ता तकता होगा
अपने घर की छत पे बेठा
शायद तारे गिनता होगा.

जतिंदर 'परवाज़'