Showing posts with label शाहिद 'अजनबी'. Show all posts
Showing posts with label शाहिद 'अजनबी'. Show all posts

Monday, August 20, 2012

आप सब को ईद की दिली मुबारकबाद ! साथ में ईदी के तौर पे पिछले दिनों लिखा हुआ आपके हाथों में सौंप रहा हूँ.

इसी मोड़ पे लहराता हाथ छोड़ आया था
हाथ क्या, यूं समझो ज़िन्दगी का साथ छोड़ आया था
शकले आसुओं में मुहब्बत की विरासत दे गयी
वरना कब का मैं वो शहर छोड़ आया था

अहदे वफ़ा, रंगे मुहब्बत सब छूट गए
इक दिल था शायद वहीँ छोड़ आया था

ये साँसों का सफ़र है जो दिन-ब- दिन चल रहा है
वरना खुद को तो कब का वहीं छोड़ आया था

बेवजह ढूंढती हैं नज़रें उन आँखों की नमी को
जिसे उसी दिन मैं खुदा के हवाले छोड़ आया था

- शाहिद अजनबी

Wednesday, July 11, 2012

माँ मेरी बहुत प्यारी है

माँ मेरी बहुत प्यारी है
मुझे डांटती है, मुझे मारती है
फिर मुझे खींच के
सीने से लिपटा लेती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

चौका बासन भी करती  है
घर का सारा काम वो करती है
ग़म मेरे होते हैं ,और उठा वो लेती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

देर रात मैं खाने को कुछ कह दूं
मेरे ऊपर चिल्लाती रहती है
मगर ख्वाहिश फिर भी पूरा करती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

चलो आज बैठक धो दूं
चलो आज आँगन धो दूं
कुछ नहीं, तो कोई काम निकाला करती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

जब भी घर से आऊँ
बस यही कहा करती है
बेटा घर खाली हो  गया
अब कब आओगे
माँ मेरी बहुत प्यारी है

उसकी उँगलियों में न जाने कौन सा जादू है
हाथ मेरे सर पे रखती है
और खुद अपनी आँखों को भिगो देती है
माँ मेरी बहुत प्यारी है

  - शाहिद अजनबी कानपुर

Sunday, September 18, 2011

फेसबुक - Facebook

इस पैरोडी का लुत्फ़ उठायें -

मेरे जीने का सहारा फेसबुक
मेरे मरने का सहारा फेसबुक
सुबह हुई फेसबुक
दोपहर हुई फेसबुक
शाम आई फेसबुक
रात होने को है फेसबुक

बत्ती गुल, मोबाईल पे चलता है फेसबुक
कोई नया बन्दा आया दुनिया में
खबर देता है फेसबुक
मरने की घड़ी है
Status अपडेट करता है फेसबुक

पापा ने पूछा 'खाना खा लो"
मम्मी ने कहा- 'बेटा पानी पी लो'
But वो तो Busy  है सिस्टर को दिखाने में फेसबुक

कभी पेज Create करता है
कभी बनता है किसी ग्रुप का Admin 
बस उसे तो मतलब है
Like  और Comments  से
न शादी से न टेंट से
you  Tube  पे जाके करता है
Share  कोई गाना 
नहीं परवाह
सुने चाहे मामा, सुने चाहे नाना

क्लास में है फेसबुक
घर में है फेसबुक
wash  रूम में है फेसबुक
उल- जुलूल फोटो करता है Tag 
चाहे क्लास में भूल जाये अपना Bag 

जानता है-
नज़र भर नहीं देखी उसकी Applications 
फिर भी बार-बार चैक करता है Notifications 
घर भर के Profile  बना डाले उसने
कभी इससे Log  In करता है
कभी उससे Log  In  करता है
पर नज़रों में रहता है बस फेसबुक

कहाँ रही वो ज़मीनी हकीकतें
कहाँ  रहे वो संस्कार
न रहा वो प्रेम
न रहा शाश्वत प्यार 
फेसबुक का इंसान खुश है 
देख कर Virtual  संसार 

- शाहिद अजनबी

Sunday, June 5, 2011

रुंधे हुए गले का जवाब


अपने गुज़रे हुए कल को सोचते- सोचते ऐसी जगह पहुँच गया जहाँ एक नज़्म नमूदार हो गयी। आज वही नज़्म आपके हाथों में सोंप रहा हूँ. आपके प्यार का इंतजार रहेगा -

तंगहाली की वो आइसक्रीम
चन्द
रुपयों के वो तरबूज
किसी गली के नुक्कड़ की वो चाट
सुबह
- सुबह
पूड़ी
और जलेबी की तेरी फरमाइशमुझे आज भी याद है
कैसे
भूल जाऊं
अम्मी से पहली मुलाकात
और मेरी इज्ज़त रखने के लिएपहले से खरीदा गया तोहफामेरे हाथों में थमाना
ये कहते हुए किअम्मी को दे देनाकैसे भूल जाऊं

वो
नेकियों वाली
शबे
बरात कि अजीमुश्शान रातकहते हैं
हर
दुआ क़ुबूल होती है उस रात
मुहब्बत से मामूर दिल
और
बारगाहे इलाही मेंउट्ठे हुए हाथ
हिफाजते
मुहब्बत के लिएकैसे भूल जाऊं

कैसे
भूल जाऊंवो पाक माहे रमज़ानसुबह सादिक का वक़्त
खुद के वक़्त की परवाह किये बगैर
सहरी के लिए मुझको जगाना
दिन भर के इंतज़ार के बाद
वो मुबारक वक्ते अफ्तारी
हर रोज मिरे लिए कुछ मीठा भेजना
कैसे भूल जाऊं

मेरा
वक़्त- बे- वक़्त डांटना
क्यूँ
भेजा था तुमने
कल
से मत भेजना
और वहां से-
वही
मखमली आवाज़ में
रुंधे हुए गले का जवाबहो सकता है
ये
आखिरी अफ्तारी हो
खा लो शाहिद
मेरे हाथों की बनी हुयी चीजें
जाने
कब ये पराये हो जाएँ
कैसे भूल जाऊं.......

- शाहिद अजनबी

Wednesday, July 14, 2010

इक पत्र जो मैंने कभी अपने इक साथी को लिखा था.

अक्सर नुक्कड़ों ,दुकानों पर राजनीती की चर्चा सुनी होगी . ये भी सुना होगा और शायद महसूस भी किया हो की हमारा सिस्टम ख़राब है . आज के स्टुडेंट तो चर्चा भी नहीं करना चाहते लेकिन अगर सिस्टम ख़राब है उसमें फोल्ट हैं तो उसको कोई दूर क्यों नहीं करना चाहता। बरसों से मैं भगत संघ के विचार पढता रहा हूँ लिटरेचर से भी गहरा लगाओ रहा .

सो एक दिन मन में ख्याल आया "ग्लोबल केयर ओर्गेनैज़सन " को लेकर जिसकी जमीं हमने भगत सिंह के विचारों को लेकर रखी और उसको आगे बढ़ाने की कोशिश की ये कोई सामाजिक संस्था नहीं है ये एक इन्कलाबी संगठन है जिसके लिए जुनूनी लोगों की जरुरत है जो बदलाव चाहते हैं ,कुछ कर गुजरना चाहते हैं पहले मैंने इसको ग्लोबली बनाने की कोशिश की मेरी विभिन्न देशों में बात हुई मगर मैं नाकामयाब रहा शायद लोगों को मेरे विचारों के जूनून का अंदाजा नहीं हुआ मगर आज आपको पाकर फ़िर से वो लौ दिखाई दी है .जब मैं मेरठ में था तो मैंने इसको नेशनल लेवल पर बनाकर हकीकत का जामा पहनाया।

तब मैंने इसकी मेरठ ,इलाहबाद ,मुम्बई, हैदराबाद ,पटना में ब्रांच बनाईं अलग अलग जगह से ८ लोगों कमेटी बनाई जिसका मैं चेयरपर्सन रहा। इसमें मैंने आम पत्र प्रकाशित कर लोगों में बटवाने चाहे जो आन्दोलन का पहला पत्र था साथ में भेज रहा हूँ पढ़ना जरुर उसे मैंने जेलों में जाकर भी वो बाँटने चाहे लेकिन नहीं हो पाया .फरहान कम कोई बड़ा नहीं होता, हम लोग उसे बना देते हैं पेंटिंग करके जब कोई अदोल्फ़ हिटलर बन सकता है तो हम लोग दुनिया क्यों नहीं जीत सकते . मैं तुम्हें जी. सी. ओ. में नेशनल लेवल पर रखना चाहूँगा.

कानपुर में तुम कमेटी बनाना. आओ दोस्त! बढ़ो मंजिल की तरफ़ ! तुम्हारी मंजिल तुम्हें आवाज़ दे रही है देखो यहाँ -यहाँ -यहाँ !!! बस एक बार हौसला बनाओ अभी कुछ नहीं खोया सब कुछ तुम्हारा है. अभी मैं इसमें जन समूह इकठ्ठा कर रहा हूँ जब हम लोगों के पीछे एक लंबा काफिला होगा तो जो.सी.ओ. एक सफल ओर्गेनायीज़ेसन।
http://www.globalcareorganization.blogspot.com

- शाहिद अजनबी

Tuesday, June 29, 2010

राबता

हर रोज करता हूँ मैं
इक नाकाम सी कोशिश
दिल में उम्मीद की
सौ शम्मा जलाये हुए
शायद राबता कायम हो जाये
और सुन सकूँ
वो मिश्री सी घुली आवाज़
जब घंटों नहीं सुनाई देते थे
वो चंद मासूम से लफ्ज़
अजब आलम तारी होता था
दिल की अंजुमन में
अब तो दिन क्या
महीनों गुजर गए
नहीं सुनी वो आवाज़
नहीं सुने वो मासूम लफ्ज़
बस बहला लिया दिल को
यूँ ही चंद नज्मेंऔर क़तात लिखके !!!
- शाहिद अजनबी

Friday, April 2, 2010

चला गया , वो तो चला गया

चला गया - चला गया
आखिर वो चला गया
एक टीस देके चला गया
एक टीस लेके चला गया
चला गया वो तो चला गया



मैं ग़ज़लों और किताबों में ही रह गया
वो इसे हकीकत का नाम देके चला गया
अब पलट कर
मैं देखता तो क्या देखता
सिर्फ धुंध थी
जो आँखों में भर के चला गया


मैं तनहा था
और तनहा ही रहा
वो वादों का बोझ देके चला गया
हम भी हारे, मुहब्बत भी हारी
मुआशरे की बंदिशें कहकर
वो चला गया


किताबें थी, किताबें हैं
और किताबें ही रहेंगी
ये ज़िन्दगी का फलसफा हे "अजनबी"
मैं भी बताने निकल गया


- शाहिद अजनबी

Thursday, January 21, 2010

तुम्हें क्या मालूम ये शादी का घर है ?




वो शादी का घर है
वहां बहुत काम है
तुम्हें नहीं मालूम ?
क्या -क्या नहीं लगता
इक शादी का घर बनाने के लिए
कोने- कोने से टुकड़े जोड़ने होते हैं
तब जाके कहीं एक बड़ा सा-
नज़रे आलम में दिलनशीं टुकड़ा
शक्ल अख्तियार करता है
तुम्हें क्या मालूम।
नहीं कटा वक़्त
उठाई कलम लिखने बैठ गए
अच्छे खासे मौजू का बिगड़ने बैठ गए
नहीं कुछ मिला
तो किसी का सुनाने बैठ गए
हद तो तब हों गयी
जब किसी का गुस्सा
किसी और पर उतारने बैठ गए
तुम्हें क्या मालूम ?
बर्तन , जेवर , बेहिसाब पोशाकें
कहाँ -कहाँ से पसंद करनी होती हैं?
नहीं , फब नहीं रहा है
वो देना तो जरा
न जाने ऐसे कितने लफ्ज़
गूंजते ,बस गूंजते रहते हैं
तुम्हें क्या मालूम। 
बस उठायी किताबें पढने लगे
कभी फिजिक्स , तो कभी मेथ्स
नहीं लगा मन
तो अदब उठा लिया
अरे तुम क्या जानो ज़िन्दगी जी के
कभी किताबों और माजी के पन्नों से
बहार निकलो
ज़िन्दगी रंगीन भी है।
तुम पन्ने ही रंगते रह जाओगे
और दूर कहीं आसमानों में
कोई एक अदद ज़िन्दगी बसा लेगा
तुम्हें क्या मालूम। 
तुम्हें क्या मालूम?
होटल का ऑर्डर
खान्शामा का इंतजाम
बाजे वाले का एडवांस
और भी बहुत से
करने होते हैं इंतजाम
शादी का घर है न ?
तुम्हें क्या मालूम। 
वहां तुम सिसकते रहते हों
कभी तड़पते रहते हों
सुना है आजकल बेचैन रहते हों
कुछ नहीं मिलता
तो पागलपन ही करते रहते हों
देखो, तुम खुद ही देखो
वही पुरानी जगह बैठकर
जहाँ सुनाया था हाले दिल
किसी का कभी
शिद्दत से लिखे जा रहे हों
जबकि जानते हों
कोई पढने वाला भी नहीं है तुम्हें
तुम्हें क्या मालूम?
- शाहिद अजनबी




Monday, June 22, 2009

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको

अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको
मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझको
- क़तील

यूँ तो मैं एक लंबे अरसे से तुम्हें कुछ लिखना चाहता था। मगर सब कुछ ऐसा होता रहा और मैं लिखने का वक्त ही नहीं निकल पाया। आज ख़त की शक्ल में पहला पन्ना सौंप रहा हूँ... मेरा मानना है जब दो मुहब्बत करने वालों के दरमियाँ ख़त की अदला - बदली न हो तो प्यार अधूरा है..... और मैं कभी नहीं चाहूँगा की मेरा प्यार अधूरा हो।

यार सोचो तो जरा ज़िन्दगी भी क्या खूब मकाम दिखाती है। आदमी हँसना चाहे नहीं हंस सकता , रोना चाहे रो भी नहीं सकता , यहाँ तक की मरना चाहे मर भी नहीं सकता ....... आज सोचता हूँ अपना पूरा दिल, पूरी तकलीफ इन पन्नों पे उडेल दूँ ...... और इन लफ्जों की ताकत इनका असर तुम्हारे लहू के कतरे - कतरे में फ़ैल जाए।

बेट्टा, यकीन करो , मेरे ख्यालों में जो तस्वीर थी, जो सूरत थी, जो सीरत थी, तुम हू -बा-हू वही हो... वही मासूमियत , वही चेहरा ,वही दिल वही ख्याल , वही पागलपन , वही ज़िन्दगी, वही बंदगी, वही आरजू ,वही तमन्ना बस वही तुम हाँ वही तुम..........

आज जब ख़त लिख रहा हूँ -तो अफ़सोस ही अफ़सोस। मैंने अब लिखा तो क्या लिखा , सच बताऊँ तो हम दोनों ने अपने मुहब्बत के सफर में खुशियाँ देखी ही नहीं। बेट्टा, तुम सरापा दर्द हो दर्द ... तुम्हारे सीने का दर्द तो लफ्जों में बयां किया ही नहीं जा सकता .... शब्द कहीं ठहरते ही नहीं तुम्हारे ग़म के आगे ....
मैं अल्लाह तआला से बारहा गुजारिश करूँगा की जो फिक्र पहले दिन स्टेशन पर तुम्हारी आंखों में थी , वही हमेशा आखिरी साँस तक रहेवो तुम्हारे शहर के स्टेशन पर एक जगह तलाश कर टायरों पे बैठ के मुझे ,लोहे कुरानी, सफर की दुआ थमाना ... वो साफ़ शफ्फाफ दिल जो फिक्र से मामूर थाऔर फ़िर वक्त के साथ उसमें मुहब्बत घुलती चली गयी

कोई इस तरह से भी मुझे अपना बना सकता है कभी सोचा ही नहींकिसी के एक इशारे पे मैं कुछ भी कर सकता हूँ, कोई मेरे एक इशारे पे हदों को पार कर सकती है- कौन जनता था ?

तुम्हारे घर के आसपास के एरिया में एक खिंचाव है , इन फिजाओं में मुहब्बत घोली गयी हैहवा में मुहब्बत की खुशबुएँ हैंजो यहाँ आए वो यहाँ का होके रहना चाहेगाइन फिजाओं को महसूस करना चाहेगा

कोई मुझे मुहब्बत के बाहुपाश में ऐसे पकड़ लेगा - मेरा दिल कभी नहीं जानता थामैं किसी के कहने पर अपना शहर छोड़कर तुम्हारे शहर आऊंगाआह - क्या मुहब्बत, यहाँ बसने तक आते -आते एक पागलपन भी इसमें शामिल हो गया....... उन आंखों की चमक , उस चेहरे की मुस्कराहट आज भी मेरे दिलो दिमाग पे जिंदा है

जो
उस दिन तुम्हारे होठों , तुम्हारे आरिज, तुम्हारी बोलती हुई आंखों पर थी..... जिस दिन तुम जाने कौन से हक़ से मेरे लिए रोजमर्रा की चीजें लेके आयी थी..... उस खुबसूरत जगह से जाने के बाद हमारी जो फोन पे बातें हुईं तुम्हें याद होंगी ....तुम उस दिन वाकई खुश थी - तुम को लग रहा था मैं आगे बढ़ रहा हूँ - तुम्हारे संग
तुम्हें वो सब कुछ नज़र रहा था जो हम दोनों ने कभी ख्यालों में बातें की थीउन्हें एक मंजिल मिलती नज़र रही थी ....एक सफर आगे बढ़ रहा थाकिसी का प्यार दूर कहीं आसमानों में एक बिजली की तरह चमका था

और जब वो बिजली चमक ही चुकी थीतो हम दोनों भी एक नई दुनिया की ज़िन्दगी में क़दम रखने लगे जाने खुदा की किस काम में क्या मर्जी है- वो हमसे क्यूँ क्या करा रहा होता है ..... यहाँ हम दोनों बड़े खुश थे उस शामजाहिर सी बात थी हम दोनों साथ होने की एक बार फ़िर बाँतें करने लगेतुमको भी लगा कोशिश तो की जाए ..... एक बार ज़माने को बताया तो जाए की हाँ हमें मुहब्बत है

मगर
अफ़सोस- सद अफ़सोस रात गहरी होते -होते खुशियों की ये कड़ी टूट गयी - हम तो बिखरे ही मेरी बेट्टा भी बिखर गयीऔर उस दिन से आज तक हम दोनों उन बिखरे हुए ख्वाबों की किरचियाँ समेट रहे हैं
जारी है-
- शाहिद अजनबी




Thursday, June 18, 2009

इक तवक्को

ये शाम के धुंधलके
और मुहब्बत के साये
हलकी- हलकी गहराती
ये खुबसूरत रात

छत की मुंडेर पे बैठी
मुहब्बत से लबरेज
वो मासूम सी
दुपट्टे को उमेठ्ती लड़की

सीने में इक खलिश लिए
आंखों में इक गहरा इंतजार
होठों पे बेवजह मुस्कराहट
ज़िन्दगी ने करवट बदली
यादों का दिया मचलने लगा

घर की दहलीज , सफर के रास्ते
ट्रेन की धडधड , फेरी
वालों की आवाजें
और किले की दीवारें
ना जाने कब पहुँच गई वो यहाँ

ख़ुद उसको ख़बर नहीं
वो मायूस शाम
रात की शुआओं में तब्दील हो गयी

और आँखें अब भी मुन्तजिर
इस तवक्को पे टिकी हुई
आरिज पे ढलके आंसुओं को
आएगा महबूब हथेली से समेटने ।

- शाहिद अजनबी

Saturday, March 28, 2009

कलम के जेहन से - सम्पादकीय

यकीन नहीं आता , विश्वाश नहीं होता की आज हम उसी भारत वर्ष में रह रहे हैं जो परम्परा और संस्कारों के लिए विख्यात है। पिछले दिनों एक बड़ी घटना प्रकाश में आयी। मुंबई का एक व्यक्ति अमीर बनने के लालच में अपनी ही बेटी की अस्मत से खेलता रहा। एक तांत्रिक के कहने पर लगातार वो ऐसा करता रहा। वो तो शुक्र है उस भले मानुस का जिसने इन्टरनेट के जरिये उसकी छोटी बेटी को समझाने दुनिया के सामने अपनी बात रखने का हौसला दिया।
इंसान दुनिया के किसी भी कोने में रहे मगर जब भी वो अपने घर के दरवाजे के अन्दर आता है उसे सुरक्षित होने का अहसास होता है। मगर ये दो बेटियाँ अपने ही घर की चारदीवारी में लुटती रहीं। अफ़सोस तो तब होता है जब पता चलता है इस घिनोने काम को अंजाम देने में उसकी माँ भी शामिल थी। एक माँ जो बेटी को नौ माह पेट में रखती है ,कैसे कैसे दर्द सहती है। जब पुरी दुनिया किनारा कर ले ऐसे में एक लड़की अपना आखिरी सहारा माँ का ही लेती है। उसी से अपना दर्द बाँटती है। मगर यहाँ तो मंजर ही कुछ और था। मार डालो ऐसी माँ को।
यहाँ रिश्ते शर्मशार तो हुए ही , उनके मायने ही बदल गए। हम अफ़सोस ही कर सकते हैं ,रो सकते हैं और कुछ भी नहीं। ऐसी कोई एक घटना नहीं। कई घटनाएँ हैं जो संस्कारों को नीलम कर रही हैं और हम सिर्फ़ कहकहे लगा रहे हैं।

शर्म कर ऐ भारतवासी - शर्म कर
कहाँ मर गया तेरा दिल , कहाँ मर गए तेरे संस्कार, कहाँ मर गए तेरे आसमानों से ऊँचे विचार। गुस्सा का आलम तो ये है - यूं. एस. ऐ. में बसे मेरे एक मित्र का घटना पर कहना था - हमारे ऊपर कोई एक ऐसा विस्फोट क्यों नहीं हो जाता की हम सब मर जाएँ।
और हमारी सरकार "जय हो" का नारा देती है तो उसका जवाब "भय हो " से दे दिया जाता है। और एक आम आदमी महज आम आदमी ही बना रह जाता है। देश को चलने वाले वोट बैंक की राजनीती में उलझे रहते हैं और देश की तरक्की दूर -दूर तक नज़र नहीं आती।
कब तक हम इस झूटी शान पे जीते रहें - की हम सबसे बड़े लोकतंत्र के वासी हैं। कभी ये ख्याल आ ही जाता है की कोई तानाशाह आए और देश के दगा बाजों को ख़त्म कर दे। हमें हमारा प्यारा भारत वर्ष वापस कर दे।
इसी उद्धरण में "मशाल" साहब की कविता प्रकाशित कर रहा हूँ।
"नई कलम -उभरते हस्ताक्षर" को आपका प्यार मिल रहा है। हमारा सहयोग करें। हमें आपकी प्रतिक्रियाओं और आपकी उपस्तिथि का इंतजार रहेगा। और एक बात जल्दी ही पंकज सुबीर जी हमारे मेहमान होंगे।
-शाहिद "अजनबी"

Tuesday, March 17, 2009

ग़ज़ल

यूँ तो शबो - रोज़ वो पन्नों को काले किया करता है
लोग कहते हैं वो तो कविता लिखा करता है

जददो जहद तो ज़िन्दगी का हिस्सा हुआ करता है
जाने क्यूँ वो बार - बार किताबे ज़िन्दगी पढ़ा करता है

दिल में दर्द , आँखों में पानी और लव पे हलकी मुस्कराहट
अरे जनाब मुहब्बत के सफर में ऐसा ही हुआ करता है

ग़ज़ल और नज़्म लिखना तो एक बहाना है "अजनबी"
वो शायर तनहाइयों में हाले दिल लिखा करता है

- शाहिद "अजनबी"

Tuesday, February 17, 2009

उनका तो नाम बिकता है

उनका तो नाम बिकता है बाज़ार में
वो कुछ भी लिख दें छपना ही छपना है
बाज़ार ही कुछ ऐसा है

लोग तो यहाँ तक कहते हैं - आज की
डिमांड है जो उन्होंने लिखा है
किसी फ़िल्म के साथ उनका नाम जुड़ जाए
तो समझो हिट होनी ही होनी है
चाहे तुकबंदी क्यों न हो या
शब्द चीख - चीख कर दम तोड़ रहे हों

सुना था जुगाड़ से सरकार चलती है
मगर यहाँ तो ज़िन्दगी और संघर्ष के
मायने ही बदल रहे हैं
कीमती पत्रिकाओं के चिकने पन्ने
उन्हें छपने की होड़ में लगे हैं, और
परदे के पीछे हिसाब हो रहा है
किसने कितना कमाया ?

मगर आज इन्हीं नाम बिकने वालों के बीच में
एक जोशीली नई कलम
अपने उभरते हस्ताक्षर छोड़ के आयी है
वो कवि नहीं है , जेब खाली है , पढने में संघर्षरत है
आज नामों के बाज़ार में
अपनी भावनाएं छोड़ आया है

और पल पल सोचते हुए कि
छपेगा - नहीं छपेगा
एक नया नाम उजाला पाने के लिए
क़दम -दर - क़दम बढाये जा रहा है .....

- शाहिद "अजनबी"