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Saturday, October 12, 2019

तलाक़-मेरी कवितायें









 शिखा परी




तलाक तीन बार था पर वो
सीधे रूह पे खंज़र की तरह  लगा
कान फ़ाड़ कर किसीने खून निकाल दिया था जैसे
मैंने होश संभाला, जोश भी

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वो प्यार मेरा अधूरा ही रह गया
जजसे पूरा समझ रही थी
कोशिश थी जिसे पूरा करने की
वो बंदगी टूट गई
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तुमसे ज़्यादा समाज ने नफ़रत की मुझसे
नाकामयाब मुहब्बत की मैंने
सहेलियों ने ताना मारा
रूह कांप उठी पर मैं वहीँ चुपचाप खड़ी

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दहेज़ अधूरा तो नहीं रह गया
माँ सोचने लगी
सारा सामान वो फिर से कल से देख रही हैं


पिताजी अब बाज़ार नहीं जा रहे
लोगो के सवाल खड़े रहते हैं
घर में ही उन्होंने आज दूध रोटी ख़ाली

लोगों को बातें ही तो बनानी है
क्यों न बनाये?
वो आसान होता है सबसे कुछ भी कह देना