Saturday, August 8, 2009

सिमटता आदमी


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दिन -ब-दिन इंसान सिमटता जा रहा है ,उसने अपने आपको दायरों में बाँध लिया है। उसे पूरी दुनिया की तो ख़बर है मगर अपने पडोसी की परेशानी का अहसास नहीं। वो सब कुछ एक स्क्रीन पर पा लेना चाहता है। सब कुछ भ्रम और सिर्फ़ भ्रम जहाँ भरम लफ्ज़ के कोई मायने ही नहीं रह जाते हैं। ऐसी ही एक रचना अपने पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है -
सिमट रहा है आदमी
हर रोज अपने में
भूल जाता है भावनाओं की कद्र
हर नयी सुविधा और तकनीक
घर में सजाने के चक्कर में
देखता है दुनिया को
टी0 वी0 चैनल की निगाहों से
महसूस करता है फूलों की खुशबू
कागजी फूलों में
पर नहीं देखता
पास-पड़ोस का समाज
कैद कर दिया है
बेटे को भी
चहरदीवारियों में
भागने लगा है समाज से
दरवाजे पर है
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काॅलबेल की हर आवाज पर
मानो
खड़ी हो गयी हो
कोई अवांछित वस्तु
-->दरवाजे पर आकर।
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-->-आकांक्षा यादव

3 comments:

  1. Aakanksha ji, samvedanaheen hote aur man se machine bante ja rahe insaan ko bakhoobi prastut kiya hai aapne. isse bhi ek kadam aage aaj ki nai peedhi ghar se office(or destination) tak kan me hdphn laga ke music sunte jate mil jayenge, magar raste me kisi gire hue ki aah unke kaano tak pahunch jaye majal hai....
    thanks

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  2. achchhi kavita ban padi hai-khaskar ant. shilp par vimarsh ho sakta hai-kathya par nahi.
    inqalabjindabad.wordpress.com

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  3. अनमोल संचयन निकलवाने की तैयारी में हूँ, शामिल होना है...?

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