Wednesday, August 19, 2009

तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो....

काव्य जगत के अनुभवी एवं हमारे मार्गदर्शक कवि 'खलिश' जी की एक रचना जो वास्तव में जीवन दर्शन है...

तुम्हारा है नहीं जो क्यों उसे अपना बताते हो
जो अपना हो नहीं सकता उसे अपना बनाते हो

ये नश्वर देह नित्य है मगर देही है अनित्य
भला क्यों भेद देह और देही का तुम भूल जाते हो

जहाँ से आये थे वापस वहीं पर लौट जाना है
यहीं रह जायेगा सब कुछ यहाँ जो भी कमाते हो

कोई परलोक की दौलत अभी तक जोड़ न पाये
यहाँ की दौलतों को देख ना फूले समाते हो

कभी भी ध्यान-सिमरन में लगाया मन नहीं अपना
खलिश यम पाश को क्यों देख कर अब छटपटाते हो.

नित्य = जो नित्य उगे-अस्त हो, जन्मे-मरे, परिवर्तनशील हो
अनित्य = जो सदा-स्थायी, अपरिवर्तनशील हो
देह = शरीर
देही = देह का स्वामी; देह को धारण करने वाला; आत्मा

- महेश चन्द्र गुप्त खलिश

1 comment:

  1. काफी प्रभावशाली रचना है
    अनमोल संचयन निकलवाने की तैयारी में हूँ, शामिल होना है...?

    ReplyDelete