Monday, August 17, 2009

दो कवितायें

मन चंचल गगन पखेरू है,
मैं किससे बाँधता किसको.
मैं क्यों इतना अधूरा हूँ,
की किससे चाह है मुझको.
वो बस हालात ऐसे थे,
कि बुरा मैं बन नहीं पाया.
मैं फ़रिश्ता हूँ नहीं पगली,
कोई समझाए तो इसको.
ज़माने की हवा है ये,
ये रूहानी नहीं साया.
मगर ताबीज़ ला दो तुम,
तसल्ली गर मिले तुमको.
उसे लम्हे डराते हैं,
कल की गम की रातों के,
है सूरज हर घड़ी देता,
ख़ुशी की रौशनी जिसको.

कि मैं तो तब भी पागल था,
कि समझा नहीं था जब
हमारे दिल कि हलचल को,
कि जब मैं पढ़ न पाया था
निगाहों की किताबों में,
हसरत-ए-मोहब्बत को,
तब तुमने ही आके तो
पागल मुझे नवाजा था.

कि मैं तो तब भी पागल था
कि जब था इश्क को समझा,
ज़माने को भुलाया फिर
मैं खुद को भी भुला बैठा,
सभी दुनिया ने मिल के तब
दीवाना पागल कह डाला.

कि मैं तो अब भी पागल हूँ,
तेरा दामन रहा थामे
मैं पूरे जोर से कसके,
मगर खोना पड़ा तुमको
बुरे हालात में फँस के,
क्या अब तो खुद को ही मैंने
पागल सच में बना डाला.
अब इक बात का इतना
ज़रा इन्साफ कर जाओ,
कि पागल कब मैं ज्यादा था?
सिर्फ इतना बता जाओ.

दीपक 'मशाल'

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