Thursday, July 8, 2010

ग़ज़ल

करीब तीस साल पहले रची गयी रचना आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

जब भी बहती है हवा उनके दामन की
याद आती हैं मुझे बहार सावन की

नहीं है कोई गिला तेरी बेवफाई का
तीस उठती है मगर मेरे दिल में जलन की

कब से क़दमों में तेरे नज़रें बिछी हैं
कभी तो होगी इधर बहार गुलशन की

उम्र गुजरी है मेरी अश्कों के भंवर में
रंजो ग़म से सिली है पैराहन मेरे कफ़न की

जाम अब तोड़ दिया मेरी नज़र ने
ये खुमारी है तेरे वडा कुहन की

इस क़दर उन पे "जलील" शबाब छाया है
हर कली है पशेमां इस दुनियाए चमन की
- अब्दुल जलील

4 comments:

  1. अच्छी गज़ल....कुहन का अर्थ समझ नहीं आया ..

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  2. बहुत सुंदर गजल जी, धन्यवाद

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  3. 30 साल पहले भी आपकी कलम मे जादू था बहुत सुन्दर गज़ल। बधाई।

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  4. आपकी कलम को सलाम...

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