Wednesday, April 8, 2009

जूता खींच के मारो भइया

शब्दों के माध्यम से सीधी चोट करने में माहिर, "नई कलम" के जाने पहचाने चेहरे को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ । आज के व्यंग्य के जरिये उनके दो अलग - अलग जज्बातों को पढ़ें। आज आपके हवाले पहला जज्बात किया जा रहा है। आने वाले दिनों में दूसरे जज़्बात का आनंद लें।

अब भी अगर न मानें ये तो,
जूता खींच के मारो भइया
बाट लगा दो बदमाशों की,
जूता खींच के मारो भइया।

जियो लाल जरनैल खबरिया,
तुम्हें कभी न लगे नजरिया,
लिखते-लिखते खबरें तुमने,
इनकी खबर भी ले ली भइया।
बुश हों, वेन हों या हों पिल्लू(पी। चिदंबरम)
जूता खींच के मारो भइया।

ये लार गिराते वोटों पर,
और रोलर धरते छाती पर,
घुस आये तालिबानी घर में,
इनकी बदली न परिपाटी पर।
ऐसे नेताओं के सर पे,
जूता खींच के मारो भइया।

सेंक रहे सब अपनी रोटी,
आज वतन की लाश पर,
मारा हिन्दोस्तां को पहले,
फिर रोते अंतिम अरदास पर।
ऐसे नौटंकीबाजों के मुंह पर,
जूता खींच के मारो भइया।

अरबों भर के झोली में वो,
दिखलाते बस थोड़ा-थोड़ा,
जो देश नचाते अंगुली पर हैं,
उनका घर ना गाड़ी-घोड़ा।
ऐसे झूठे मक्कारों को,
जूता खींच के मारो भइया।

आग लगा दो इन चोरों को,
पुनः नया इतिहास बनाओ,
वक़्त विकास का है बन्धु ये,
अपना ना परिहास बनाओ।
उगाओ सूरज क्रान्ति का नव,
जूता खींच के मारो भइया।

- दीपक चौरसिया "मशाल"

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