Friday, July 31, 2009

नज़्म


बेज़ार मैं रोती रही, वो बे-इन्तेहाँ हँसता रहा,
वक्त का हर इक कदम, राहे जुल्म पर बढ़ता रहा।
ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,
मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा।
उसको ख़बर नहीं थी कि मैं बेखबर नहीं,
मैं अमृत समझ पीती रही, वो जब भी ज़हर देता रहा।
मैं बारहा कहती रही, ऐ सब्र मेरे सब्र कर,
वो बारहा इस सब्र कि, हद नयी गढ़ता रहा।
था कहाँ आसाँ यूँ रखना, कायम वजूद परदेस में,
पानी मुझे गंगा का लेकिन, हिम्मत बहुत देता रहा।
बन्ध कितने ढंग के, लगवा दिए उसने मगर,
'मशाल' तेरा प्रेम मुझको, हौसला देता रहा।।
दीपक 'मशाल'
चित्रांकन- दीपक 'मशाल'

4 comments:

  1. ये सोच के कि आँच से प्यार की पिघलेगा कभी,
    मैं मोमदिल कहती रही, वो पत्थर बना ठगता रहा।

    अच्छी अभिवयक्ति। इन पंक्तियों से बशीर बद्र साहब याद आये-

    पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला
    मैं मोम हूँ तू ने मुझे छूकर नहीं देखा

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    www.manoramsuman.blogspot.com
    shyamalsuman@gmail.com

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  2. बेहतरीन नज़्म!!

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  3. jindagi ki wedana hai .........shayad jindgi ko inhi chijo se hokar gujarana hota hai.......sundar

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  4. aap sabka tahedil se shukriya, ummeed hai ki isi tarah aapka pyar aur aashish milta rahega.
    thanks again.
    Dipak 'Mashal'
    mashal.com@gmail.com

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