Friday, February 20, 2009

नज़्म

अब उस शै का लौटना नामुमकिन है
वो शै जिसे मुहब्बत कहते हैं
वो तो निकल गया
जैसे लहरें
साहिल पे पड़े किसी पत्थर से मिलती हैं
मैं देख रहा हूँ अनजान मंजिल की तरफ
बढ़ते उस अताह तलातुम को
इन मौजों के शोर और जोश में
मैं अपने पुराने वाकये देख रहा हूँ
जरा देख तो सही मेरे अक्स को इस बहते पानी में
क्या वो मैं ही हूँ
जो कुछ लम्हा पहले दिखता था
मौज के वो कतरे जिन पे दिखता था मैं
मेरा अक्स उभरा था
वो तो कब के आगे बढ़ गए
मैं सोच रहा हूँ
मैं वो ही हूँ या नहीं ,गुमान है इसका
मैं वहीँ खडा हूँ , हाँ , इसका यकीन है
वो आगे जाने वाली लहर
शायद पिछले से मेरे
साथ रहने की सिफारिश कर गयी है।

- नरेन्द्र त्रिपाठी

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