Saturday, May 9, 2009

जीना चाहते हैं वह मर कर।



नाखुश इतने, नफरत कर कर।

रक्त पीपासा, उर में भर कर।

अपना नया ईश्वर रच कर,

जीना चाहते हैं वह मर कर।


हाथ नहीं हथियार हैं उनके,

मस्तक धड़ से अलग चले हैं।

इच्छा और विवेक से अनबन,

आस्तीन में साँप पले हैं।

काम धर्म का मान लिया है।

जाने कौन किताब को पढ कर।

अपना नया, ईश्वर रच कर।

जीना चाहते, हैं वह मर कर।


खून और चीत्कार का जिसने,

अर्थ बदल कर उन्हे बताया।

निर्दोषों को मौत का तौहफा,

दे कर जिसने रब रिझाया।

माँ के खून को किया कलंकित,

झूठे निज गौरव को गढ कर।

अपना नया ईश्वर रच कर।

जीना चाहते हैं वह मर कर।


बचपन की मुस्कान है जीवन,

काश उन्हें भी कोई बताये।

रास रस उल्लास है जीवन,

कोई उनको यह समझाये।

क्यों खुद को आहूत कर रहे,

भ्रमित उस संसार में फंसकर।

अपना नया ईश्वर रच कर।

जीना चाहते हैं वह मर कर।


- योगेश समदर्शी

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