Sunday, November 14, 2010

शायराना क़ज़ा


एक लम्बे अरसे के बाद आप सुधि पाठकों से मुखातिब हों रहा हूँवक़्त भी क्या चीज है, पंख लगा के दौड़ती चली जाती है, और हम पकड़ने की नाकाम कोशिश करते रहते हैंखैर! आज आपको "नई -कलम"के मंच पर एक और उभरते हस्ताक्षर से रूबरू करा रहा हूँपेशे से सोफ्टवेयर मैं कार्यरत "ऐश्वर्य" साहब से मुखातिब करा रहा हूँऔर उनकी नज़्म का आप लोग लुत्फ़ उठायें, आप सब से एक गुजारिश जरुर करूँगा, अपनी प्रतिक्रियाएं जरुर जाहिर करेंताकि कवि की हौसला अफजाई हों और साहित्य को और अच्छा साहित्य हासिल हों सके, नज़्म आपके सुपुर्द कर रहा हूँ-

मैं तुम्हें भूल गया हूँ
या
यूँ कहूँ कि तुम्हें याद ही नहीं करता
जाने क्यूँ दिल ही नहीं करता
तुमने भी कोशिश की होगी भूल जाने की मुझे,
याद
आने की मुझे तुम्हारी कोशिश साकार कर रहा हूँ
तुम्हें
भूल कर, तुम्हें प्यार कर रहा हूँ
अब तो रातों में बेचैनी नहीं होती दिन में ख्याल आता है
जिसे याद कर कोई नज़्म लिखूं
कोई शेर बने , कोई ग़ज़ल कहूँ
तुम भी तो रातों में तड़पे होगे
किसी
यतीम मंजिल पे पड़े होगे

जहाँ मैं बस्ता हूँगा, ख्याल बनके तुम बहते होगे हवाओं से
और
हमारे बेनाम मरासिम को ये काफ़िर दुनिया शायराना फिजा कहेगी
अब
तो उम्र भी गुजर गयी, रोज की आदतों की तरह
फिर एक दिन गुजर गया, रोज के रास्तों की तरह

तुम्हें भी याद किया, खुद की साँसों की तरह
फिर
भी जिंदा हूँ, रहता हूँ इस कायनात में
ये तुम्हारी ही तो दुआ थी, जिसने जिंदा रखा मुझे
ये
तुम्हारी ही तो जुदाई थी,
जिसने
बरसों पहले इस रूह को शायराना क़ज़ा दी थी!!!!

- ऐश्वर्य

1 comment:

  1. मुबारक हो !!
    यकीनन नज़्म दिल को छू गयी,
    और हमारे बेनाम मरासिम को ये काफ़िर दुनिया शायराना फिजा कहेगी
    अब तो उम्र भी गुजर गयी, रोज की आदतों की तरह
    फिर एक दिन गुजर गया, रोज के रास्तों की तरह
    खुदा से दुआ करूँगा ये आपका ये अदब का सफ़र लम्बा और लम्बा हो

    शाहिद "अजनबी"

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