Wednesday, July 14, 2010

इक पत्र जो मैंने कभी अपने इक साथी को लिखा था.

अक्सर नुक्कड़ों ,दुकानों पर राजनीती की चर्चा सुनी होगी . ये भी सुना होगा और शायद महसूस भी किया हो की हमारा सिस्टम ख़राब है . आज के स्टुडेंट तो चर्चा भी नहीं करना चाहते लेकिन अगर सिस्टम ख़राब है उसमें फोल्ट हैं तो उसको कोई दूर क्यों नहीं करना चाहता। बरसों से मैं भगत संघ के विचार पढता रहा हूँ लिटरेचर से भी गहरा लगाओ रहा .

सो एक दिन मन में ख्याल आया "ग्लोबल केयर ओर्गेनैज़सन " को लेकर जिसकी जमीं हमने भगत सिंह के विचारों को लेकर रखी और उसको आगे बढ़ाने की कोशिश की ये कोई सामाजिक संस्था नहीं है ये एक इन्कलाबी संगठन है जिसके लिए जुनूनी लोगों की जरुरत है जो बदलाव चाहते हैं ,कुछ कर गुजरना चाहते हैं पहले मैंने इसको ग्लोबली बनाने की कोशिश की मेरी विभिन्न देशों में बात हुई मगर मैं नाकामयाब रहा शायद लोगों को मेरे विचारों के जूनून का अंदाजा नहीं हुआ मगर आज आपको पाकर फ़िर से वो लौ दिखाई दी है .जब मैं मेरठ में था तो मैंने इसको नेशनल लेवल पर बनाकर हकीकत का जामा पहनाया।

तब मैंने इसकी मेरठ ,इलाहबाद ,मुम्बई, हैदराबाद ,पटना में ब्रांच बनाईं अलग अलग जगह से ८ लोगों कमेटी बनाई जिसका मैं चेयरपर्सन रहा। इसमें मैंने आम पत्र प्रकाशित कर लोगों में बटवाने चाहे जो आन्दोलन का पहला पत्र था साथ में भेज रहा हूँ पढ़ना जरुर उसे मैंने जेलों में जाकर भी वो बाँटने चाहे लेकिन नहीं हो पाया .फरहान कम कोई बड़ा नहीं होता, हम लोग उसे बना देते हैं पेंटिंग करके जब कोई अदोल्फ़ हिटलर बन सकता है तो हम लोग दुनिया क्यों नहीं जीत सकते . मैं तुम्हें जी. सी. ओ. में नेशनल लेवल पर रखना चाहूँगा.

कानपुर में तुम कमेटी बनाना. आओ दोस्त! बढ़ो मंजिल की तरफ़ ! तुम्हारी मंजिल तुम्हें आवाज़ दे रही है देखो यहाँ -यहाँ -यहाँ !!! बस एक बार हौसला बनाओ अभी कुछ नहीं खोया सब कुछ तुम्हारा है. अभी मैं इसमें जन समूह इकठ्ठा कर रहा हूँ जब हम लोगों के पीछे एक लंबा काफिला होगा तो जो.सी.ओ. एक सफल ओर्गेनायीज़ेसन।
http://www.globalcareorganization.blogspot.com

- शाहिद अजनबी

Monday, July 12, 2010

ज़िन्दगी

ज़िन्दगी तेरी गोद में हर शाम गुजरती रही
मैं ठहरी रही तू गुजरती गयी
तेरे आँचल के छाँवमें
मैं खुद को बहलाती रही
और तू
हवा बनकर मुझे सहलाती रही।

मैं तुम्हें कभी ये कह न पायी
ऐ ज़िन्दगी तेरी याद बड़ी आएगी
तू छोड़ देगी मेरा साथ जिस दिन
उस दिन मेरी रूह कांप जाएगी
तमन्ना के आँचल में
सर रखकर
मैं पूछती हूँ
ऐ ज़िन्दगी तू कब तलक तरसाएगी।

मैं तुम्हें नाराज़ करना नहीं चाहती
पर हकीकत है
की अनजाने में
तू मेरा दिल तोड़ते आयी है
ज़िन्दगी तेरी गोद में
मेरी हर शाम गुजरती आयी है।

ज़िन्दगी रुक जा
आज मेरे सपनो को चकनाचूर मत कर
तू बेवफा बनकर मेरा दिल तोड़ते आयी है
इक बार ही सही वफ़ा कर दे मेरे साथ
की मैं भी कह सकूँ सबसे
की ज़िन्दगी मेरे साथ मय रंग लाई है।

आज मैं क्या कहूँ
तुमसे ज़िन्दगी
की आज ही तुने मेरी दुनिया लुटाई है
मौत का नाम देकर
मेरे अरमानों की कश्ती दोबाई है।
- शिखा वर्मा "परी"


Thursday, July 8, 2010

ग़ज़ल

करीब तीस साल पहले रची गयी रचना आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

जब भी बहती है हवा उनके दामन की
याद आती हैं मुझे बहार सावन की

नहीं है कोई गिला तेरी बेवफाई का
तीस उठती है मगर मेरे दिल में जलन की

कब से क़दमों में तेरे नज़रें बिछी हैं
कभी तो होगी इधर बहार गुलशन की

उम्र गुजरी है मेरी अश्कों के भंवर में
रंजो ग़म से सिली है पैराहन मेरे कफ़न की

जाम अब तोड़ दिया मेरी नज़र ने
ये खुमारी है तेरे वडा कुहन की

इस क़दर उन पे "जलील" शबाब छाया है
हर कली है पशेमां इस दुनियाए चमन की
- अब्दुल जलील

Monday, July 5, 2010

कुछ मुक्तक

1. दिल के रास्ते पे तस्वीर है तेरी
हर दोराहे पर मुहब्बत की जंजीर है तेरी
तुम तो मिल जाते हों हर मोड़ पर
लगता है तू मेरी मंजिल
और मैं तकदीर हूँ तेरी

2. ज़िन्दगी को हँसना सिखाया आपने
कुछ देकर जीना सिखाया आपने
मेरे दिल को पहले ही चुरा लिया
और अब कहते हैं कि
बिना दिल से प्यार को निभाया आपने

- शिखा वर्मा "परी"