वरिष्ठ पत्रकार प्रेम प्रकाश जी का जीवंत संस्मरण आपके हाथों में सौंप रहा हूँ.... नई क़लम- उभरते हस्ताक्षर के मंच पे एक बड़े कलमकार का बड़ा जीवंत संस्मरण ---
अपनी आपबीती
गुड़िया बक्सर गयी..
............................
आज सुबह-सुबह ही रोने का सामान हो गया.पूरे 8 साल बनारस में रहकर मुझसे 6
साल छोटी मेरी बहन गुड़िया अपने पति और बच्चों के साथ बक्सर शिफ्ट हो
गयी.अब,जब कि उसके सकुशल नये शहर और नये घर में पहुँच जाने की सूचना मिल
गयी है,तो उसे याद करने बैठा हूँ.पिछले महीने ही जब रवि का ट्रान्सफर
मोतिहारी से बक्सर हुआ तभी से उसके बक्सर जाने के चर्चे थे.ऋषभ और
कावेरी,उसके दोनों बच्चे बहुत खुश थे.खुश तो गुडिया भी थी,क्योंकि इन 8
सालों में रवि मोतिहारी और वो बच्चों के साथ यहाँ बनारस में अकेले-अकेले ही
थे.पिछले एक हफ्ते से उसका यह जाना अम्मा,और हम सब के मन पर बुरी तरह छाया
हुआ था.
खुश तो हम सब थे,लेकिन गले में कुछ फंसा हुआ भी हम सभी के अन्दर
था.गाँव से अम्मा का फोन आना बढ़ गया था.अम्मा उससे कहतीं कि भईया बनारस में
अकेले रह जायेंगे.मुझसे कहतीं कि कैसे रहेगी वो वहां तुम लोगों के
बिना.तीन दिन पहले से सामान पैक हो रहा था.यहाँ से आधा किलोमीटर दूर यहीं
'कोनिया' में किराए के घर में रह रही थी गुड़िया.आज सुबह गाडी भी आ गयी 6
बजे ही उसका फोन आया--''भईया,जा रहे हैं हम''.घर से सबको ले-दे के उसके घर
पहुंचे तो सामान बाहर आ चुका था.मोहल्ले की 30-40 महिलायें उसे घेरे हुए
थीं,और उसकी आँखें लाल.......डभ-डभ....रोये जा रही थी.मुझे देखा तो लिपट
गयी......... मुझे लगता है कि उसे 19 साल पहले बाबूजी ने विदा नही किया
था.विदा तो उसे आज हमने ही किया है.उन्नीस साल पहले का मंज़र याद करता
हूँ,तो ये जो आज गले में 'कुछ'फंसा हुआ है,लगता है ये तभी से ही फंसा हुआ
है.दो बड़े भाइयों के बीच अकेली बहन के नाते स्वाभाविक ही बहुत दुलार में
पली वो.संयुक्त परिवार होने के नाते हम सभी 8 भाइयों के बीच दो ही बहनें
थीं.1994 में गोरखपुर युनिवर्सिटी से ग्रजुएशन कम्पलीट करते-करते बाबूजी
उसकी शादी के चक्कर में पड गये थे.
परम्पराएं,रीति-रिवाज और इनके प्रति
ग्रामीण मन का मोह कितना सघन होता है,यह एक बार फिर बहुत करीब से देख रहे
थे हम.मेरी शादी हो चुकी थी.बीच में एक और बड़े भाई के होने के बावजूद बेटी
का ब्याह पहले करेंगे इसके लिए बाबूजी पर बहुत दबाव था.जब भी उसकी शादी का
ज़िक्र चलता,हम दोनों भाई बेचैन हो जाते.एक वही तो थी दोनों भाइयों के लिए
आकर्षण,मनोरंजन,दुश्मन...सब एक साथ.दुश्मन इसलिए कि बाबूजी तक हम दोनों
भाइयों की शिकायतें वही पहुंचाती थी,बाबूजी की सीआइडी इंस्पेक्टर.बचपन में
रोज सुबह उठ के हम दोनों भाई उसको पैर छू के प्रणाम करते थे.लक्ष्मी थी न
बाबूजी की.सामान्य दुनियादारी से कुछ अलग हट के अपने बच्चों को ज़िन्दगी के
मूल्यों की शिक्षा देने वाले बाबूजी की उसकी शादी के लिए जल्दबाजी देखकर हम
हैरान थे.ऊपर से उनकी ये बात तो हमारी जान ही निकाल लेती थी कि शादी गाँव
से ही करेंगे और गाँव में ही करेंगे.हमारे गाँवों में कई सारी कहावतें होती
हैं.जो सामान्य जनजीवन को दिशा भी देती है और उसकी दशा भी बताती हैं,समाज
को उत्प्रेरित भी करती हैं,प्रभावित भी करती हैं,सीमित भी करती हैं,दायरे
भी खींच देती हैं.ऐसी दो कहावतों का ज़िक्र करूँ----एक बेटी,नौ
दामाद....माने एक बेटी के लिए रिश्ता खोजने आपको कितने ही घरों में जाना
पड़ता है,टकराना पड़ता है,सालों साल तलाश करनी होती है एक ऐसे इंसान की,जिसके
हाथ में अपनी बेटी सौंपकर पिता निश्चिन्त हो सके,मुक्त हो सके.दूसरी कहावत
है---बेटी के लिए शादी खोजने में बाप के पाँव के जूते घिस जाते
हैं....बाबूजी पर इन दोनो कहावतों का ज़बरदस्त असर था.छुट्टी लेकर गाँव
जाते,10-20 गाँव घूमते और शादी तय नही होती.लौट कर बताते तो हम भाई-बहन सब
खुश हो जाते.एक बार तो उन्होंने झुंझलाकर अपना जूता निकाला और एक पत्थर पर
जोर-जोर से घिसने लगे.यकीन मानिए,उस खुरदुरे पत्थर पर रगड़ खाकर उनका जूता
घिस ही तो गया.हम लोग हंस रहे थे,उनसे जूता छीन रहे थे.वे बोले-ना,आज तो
इसको घिस के ही मानूंगा,लड़का मिलेगा कैसे नही.लड़का देखने की उनकी कसौटियां
भी गज़ब की थीं.एक जगह पहुंचे तो पता चला कि पंडित जी की 40 बीघे की खेती
है.4 बीघा चना तो घर के सामने वाले खेत में ही लगा रखा था.बड़ा-सा हवेली
जैसा मकान था,दरवाजे पर ट्रेक्टर खड़ा था.बेटियाँ ब्याह दी हैं,बड़ा बेटा
शादीशुदा है और नौकरी में है.दूसरा बेटा बाकी है. बेटी के लिए शादी देखते
समय हमारे तरफ घर और वर देखते हैं.माने पहले हैसियत उसके बाद लड़का.जबकि
मुझे लगता है इसको उलट के देखना चाहिए.पहले वर फिर घर.बाबूजी एकांगी धारा
के आदमी नही थे.बेटी बड़ी हो गयी,ये सामाजिक दबाव उनपर भले था,लेकिन दृष्टि
उनकी खूब गहरी थी.घर और हैसियत देखकर शादी उनको भा गयी.उन्होंने पूछा-लड़का
कहाँ है..?ज़रा बुलाइए.लड़के के पिता ने उत्तर दिया-होगा यहीं कहीं,आता
होगा,आ जाएगा.
बात-चीत होने लगी.दान-दहेज,मोल-भाव आदि सारी दुनियादारी तय हो
गयी और लगभग 2-3 घंटे बीत गये.बाबूजी ने एकबार फिर पूछा-लड़का आया नही अब
तक..?लड़के के पिता परेशान थे,बोले-पता नही,कुछ कह के नही गया,संगी-साथियों
के साथ होगा कहीं.आ जाएगा अभी.उनके जवाब से बाबूजी को तसल्ली नही हुई,वे
लड़के को देखकर ही लौटना चाहते थे.क्या पता,फिर छुट्टी कब मिले,न मिले.लेकिन
करते भी क्या...फिर मिलने का तय करके बाबूजी उठ आये.गाँव से बाहर निकलते
समय अगुआ ने दिखाया-देखिये,यही है लड़का.4-6 लड़कों के साथ मुंह में पान
घुलाये लड़का मोटरसाइकिल से आता दिखा.बाबूजी अगुआ से बोले..-शादी नही
करेंगे.अगुआ का मन धक्क से रह गया.-काहे भईया...?,ऐसा क्या हो गया,..?ऐसी
हैसियत वाली शादी मिलती कहाँ है..?अरे,बेटी के भाग जाग जायेंगे.लेकिन उनको
जवाब बाबूजी ने नही,बाबूजी की कसौटी ने दिया-भाग जाग नही जायेंगे दुबे
जी,बेटी के भाग फूट जायेंगे इस घर में.जिस बाप को 4 घंटे से यही नही मालूम
कि उसका नौनिहाल है कहाँ,उसका ये बेटा,जो अभी एक पैसा कमाता नही.इसी उम्र
में दोस्तों के साथ पान खाकर मटरगश्ती कर रहा है,वो कल सिगरेट भी
पिएगा,परसों शराब भी पिएगा और बाप का 40 बीघा बेच भी खायेगा.मुझे कत्तई नही
करनी है ये शादी.अगुआ समझाता रहा लेकिन,ना तो फिर पक्की ना.बाबूजी अपनी
सोच और फैसलों के पक्के थे.उसी समय उन्होंने अगुआ को वापस उनके घर भेजकर
अपने इनकार की सूचना भिजवा दी और घर लौट आये.
बहन की शादी को लेकर
हमारी धडकनों के बढ़ने-घटने के ये दिन बहुत जल्दी बीत गये.1995 की फरवरी में
गाँव से लौट कर बाबूजी ने सूचना दी-बेटी की शादी तय हो गयी.अरे,..हमसब तो
जैसे झटका खा गये.-कहाँ,कैसे,कब..?बाबूजी ख़ुशी-ख़ुशी राहत भरी सांस लेकर
एक-एक बात बताने लगे.और हम सच में रोने लगे.-11 जून को तिलक है,21 जून को
शादी है.लड़का पोस्टग्रेजुएट है.लड़के के चाचा का मुंबई में बिल्डर्स का
कारोबार है.लड़के के पिता आयुर्वेद-रत्न हैं.गाँव पर 25 बीघे खेती है.खूब
बड़ा-सा मकान है....ह
मने झुंझला के पूछा-बाबूजी लड़का करता क्या है..?खूब बड़े
मकान और 25 बीघे खेती से शादी करनी है क्या..?बाबूजी भी झुंझला
गये..बोले-जा के देख आओ न तुम भी.लड़का अपने चाचा के काम में हाथ बंटाता
है.कहने की ज़रुरत नही है कि हमारे और बाबूजी के बीच बातचीत और बहस की
गुंजाइश तो उन्होंने हमेशा बनी रहने दी लेकिन उनके और मेरे बीच अंतिम बात
उनकी डपट ही होती थी.उसके बाद हमें चुप रह जाना पड़ता था..खैर लड़का देखने हम
भी जायेंगे,सोच कर गाँव आये तो अजब-गजब बातें सुनने को मिलीं. पता चला कि
ये लड़का बाबूजी को पसंद क्यों आया.इसलिए पसंद आया कि जिस जमाने में लड़के
पान,गुटखा खाते हैं,और सिगरेट,शराब पीते हैं,उस जमाने में ये लड़का उन्हें
बाज़ार में सेब खाते हुए मिला था.और वे बस इसी बात पर मुग्ध हो गये थे. हम
भी घरद्वार देख आये. एक नजर में तो सब ठीक ही लगा. बात केवल अब मेरी हाँ
पर टिकी थी. बाबूजी की परेशानियां और उनका तनाव देखकर हम सब उन्हें राहत तो
देना चाहते थे,लेकिन केवल खेती की मात्रा और मकान का आकार देखकर हाँ करने
की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी. अलबत्ता मेरे तर्कों को बहुत भाव नहीं
मिला.संयुक्त परिवारों के अपने ही नियम कानून होते हैं. कैसे इन
दबावों,सबकी इच्छाओं,परम्पराओं, मर्यादाओं और एक निश्चित दायरे की सोच
मासूम जिंदगियों से खेल जाती है, इस पटकथा के हम प्रमुख पात्र बन गये
थे.मेरा मन राजी न होता और बाकी कोई मेरी बातों से बहुत रजामंदी नही रखता-
अरे , आज नहीं तो कल कमाएगा ही लड़का और फिर इतनी बड़ी खेती है. "उत्तम खेती,
माध्यम बान, निखित चाकरी, भीख निदान" - घाघ की ये कहावत मेरे बाबा का
मन्त्र थी. सारी जद्दोजहद और बहस-मुबाहिसे के बाद अंततः यही शादी हो गयी
और..
अब मुझे वो बात कहनी है, जो मै नहीं जानता कि कहनी चाहिए या
नहीं,लेकिन न कहूँ तो ये सब इतना लिखने का औचित्य ही क्या..? उस घर में
जाने के बाद गुडिया सुखी है, ऐसे समाचार दो-चार महीने तक आते रहे.हम सभी
बारी-बारी जाते रहे. रवि मुंबई चले गये. घर में रह गया सास-ससुर,
जेठानी-भसुर, देवर आदि का कुटुम्ब और नई बहू के रूप में एक अकेली जान- मेरी
बहन. मेरा ये लांछन संयुक्त परिवार का संरचना और उसकी गरिमा पर नहीं है
लेकिन मेरा यह सवाल उस निकृष्ट मानसिकता पर जरूर है,जो चाहे ग्रामीण हो या
शहरी, इससे कोइ फर्क नही पड़ता. नयी आई बहू घर में बिना तनखाह की नौकरानी ही
होती है. अपवाद जरूर होंगे लेकिन मेरा निश्चित मानना है कि स्त्री विमर्श
के कितने ही पन्ने हमारे घरों में, हमारे घर-दालानों में, हमारी
ड्योढ़ी-दरवाजों पे गलीज मर्यादाओं के नाम पर लात - लात रौंदे जाते हैं.
हमारे समाजों में ससुराल की जमीन नयी आई बहू को इतना उछालती है, इतना पटकती
है कि अगर ज़रा-सी कम मानसिक और शारीरिक कुव्वत की हुई, तो लड़की का खुदा ही
मालिक है. इस जीवन-अप-संस्कृति को पुरातन नज़र से देखें तो बहुतेरे
परिवारों में महिलाओं को जीवनभर की इस एकतरफा सेवा-टहल और खटनी का इनाम भी
मिलता है,तो 10-20 साल बिता लेने के बाद,ससुराल की कसौटियों पर खरी उतर
लेने के बाद,बच्चों से लेकर बूढ़ों तक की एक-एक छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी
हर उम्मीद को अनवरत पूरा करते जाने का युद्ध लड़ लेने के बाद.यह इनाम उसे
मिलता है तब,जब उसकी जगह कोई दूसरी,उसकी देवरानी या बहू उसकी पूरी
जिम्मेदारी संभाल लेती है.
तब,जब घर में बिना तनख्वाह काम करने वाली एक
दूसरी नौकरानी दाखिल हो जाती है.इनके शरीर को 24 घंटों के हर मोर्चे पर
केवल और केवल खटना होता है. सास.ननद और जेठानी के आलावा घर और
रिश्तेदारियों की पुरुष बन चुकी औरतों के हाथ पाँव दबाने से लेकर
चूल्हा-चौका,झाडू-बर्तन,साफ़-सफाई,कपडा-लत्ता,भोजन-जेवनार,छोटा-बड़ा,इज्जत-मर्यादा...ये
सब कुछ इस एक अकेली जान के सिर पर होता है.इन सभी मोर्चों पर शरीर तोड
लेने के बाद उसे अपने होने का प्रमाण देना होता है, अपना स्त्रीत्व साबित
करना होता है,घर को वारिस भी देना होता है...क्या मजाल कि नयी बहू ससुराल
में किसी के चार दिन के बच्चे को भी तू कह कर बोल दे. मर्यादा का धनुष भंग
हो जाएगा.जनमतुआ बच्चे-बच्चे को आप कहना,सबकी 'सुनना',सबकुछ करना, मुंह को
सिल के और ठोढ़ी के नीचे तक घूँघट में ढँक के रखना अच्छी बहू के अच्छे
लच्छन होते हैं.बदले में उसका घर जो उसे देता है,उसका नाम झिडकी है,फटकार
है,ताने हैं,उसके बाप-भाई तक की औकात नापते-जोखते कई-कई अफ़साने हैं....
और
ऐसा तब है,जब नई बहू नये घर में रहने और चार रोटी खाने की कीमत अपने मायके
से लेकर आती है.अलबत्ता ये चार रोटी खाते हुए,उसका दिख जाना धरती का सबसे
बड़ा पाप होता है.इसके लिए भी एक कहावत है,जो ज्यादातर सास,ननद ही सुनाती
है-मर्द का नहाना और औरत का खाना किसी की नज़र में नही आना चाहिए.अब ये अलग
बात है कि इतनी जानदार सांस्कृतिक कहावत के अस्तित्व के बावजूद औरतों से
भरे घर के आँगन में खाली चड्ढी पहनकर घर का मर्द तो बड़ी मस्ती से नहाता दिख
जाता है.लेकिन 14-16 घंटे का बदनतोड़ श्रम करने के बाद औरत को तो किसी कोने
अंतरे,किसी ताखे आदि में बैठ कर छूटी-छटकी,बासी-तिबासी दो रोटी चबा लेनी
चाहिए बस.
कुल मिलाकर अपने माँ-बाप की रानी बेटी के लिए उसका वेद-पुराण
सम्मत यह नया घर उसकी कब्रगाह बन जाता है.ये शादी नही,एक घिनौना और सडांध
मारता एकतरफा समर्पण होता है,जिसकी बदबू के नीचे एक बेटी मर-मर के जीती
है.इसलिए कन्यादानियों के इस संकल्प को महापाप और धरती का सबसे बड़ा
भ्रष्टाचार कहने में मुझे कोई हिचक नही होती.मै विवाह के नाम पर इसे
व्यापार कहता हूँ,मर्यादाओं के नाम पर इसे बलात्कार कहता हूँ,दरवाजे पर पड़े
परदे के पीछे ड्योही की इज्जत के नाम पर इसे हत्या कहता हूँ.अगर लड़की कहीं
सचमुच की पढ़ी-लिखी निकल गयी,अगर ज़रा भी सोचने-विचारने का काम कर लिया तो
घर परिवार के संस्कारों की राशि भरभरा के गिर पड़ती
है.कुलटा,कुलच्छिनी,बदचलन,बेगैरत,आवारा....और इस सीरिज के ढेर सारे तमगे
उसे उसी घर से मिलने लगते हैं,जिसकी बगैरत इज्जत का भार उसके सिर पर होता
है.इस नई बहू का पति जमाने का सबसे बड़ा उल्लू होता है.मर्यादाओं की जकड़न
उसकी जुबान खुलने और पत्नी के पक्ष में खड़े होने का अवसर प्रायः नही के
बराबर देती है.हाँ,अगर वह कुछ सचेत हुआ, तो खुद के लिए ढेर सारी बदनामी और
विरोध बटोरकर,जोरू का गुलाम कहलाकर भी पत्नी को थोड़ी-सी राहत तो दिला ही
लेता है.
खैर...गुडिया अब इस घर की नई बहू थी.और हम सब के हाथ बंधे
थे,क्योंकि मर्यादा से खेलने की इजाजत हमें नही थी.हम सिर्फ रो सकते थे.8
साल रवि का मुंबई प्रवास रहा और इस बीच गुडिया नई बहू की चादर ओढ़कर
'तरह-तरह' के लोगों से भरे उस घर में एकाकी जीवन जीती रही.बाबूजी की आँखे
बताती थीं कि एक बड़ा और गलत फैसला लेकर अनजाने में ही वे अपनी ही बेटी की
ज़िन्दगी से खेल गये थे.अम्मा के दुःख का पार नही मिलता था.गुडिया के
एकमात्र संगी हमी बचे थे,जो कहीं भी रहें,हफ्ते में एक बार उसके पास जरूर
पहुंच जाते थे.बहुत सारी बातें वह मुझसे कहती.जो नही कह सकती,उसे चिट्ठी
में लिखकर मेरे ही हाथों अपनी भाभी तक भिजवा देती.उसके 8 साल के इस एकाकी
संघर्ष ने उसे काफी कमज़ोर किया.कैसी-कैसी कमज़ोर बातें करने लगी थी वो,लेकिन
सबसे अच्छी बात ये थी कि सबकुछ मुझसे कह देती थी-भईया,हम ज़हर खा लेंगे
अब.उन दिनों हमने अपना सारा अर्जित ज्ञान,मेधा,योग्यता,शब्दशक्ति और अपनी
पूरी ताकत लगाकर कैसे-कैसे उसे सम्भाले रक्खा,ये केवल हमी जानते हैं.रवि उस
बेहद जड़ परिवार का सीधा,सच्चा लेकिन उतना ही जड़ लड़का था.मुझे यह कहने में
कोई संकोच नही करना चाहिए कि 25 बीघे खेती वाले उस घर में
चाय,चीनी,ब्रश,पेस्ट से लेकर साडी,कपडा,दूध-दही-यानी उसके काम का सबकुछ 8
साल तक लगातार उसके घर पहुंचाते रहे हम.
लेकिन न तो रवि को इन बातों से कोई
फर्क पड़ता था न उस परिवार को.इसी बीच घर में चोरी की एक हौलनाक व रहस्यमय
घटना भी हुई,जिसमे गुडिया का वह सब कुछ चोरी चला गया,जो वह मायके से लेकर
आई थी.उसके बक्से,कपडे,गहने,रूपये,पैसे...यानी सब कुछ.इस एक घटना के बोझ से
मेरे सब्र का बाँध अब दरकने लगा था.ऋषभ और कावेरी के आ जाने से गुडिया की
ज़िन्दगी में एक ख़ुशी तो आ गयी थी,लेकिन रवि के नकारात्मक रवैये ने मुझे
बौखला रक्खा था.चोरी की घटना ने मेरे मन में पूरे परिवार के प्रति संदेह भर
दिया था.बाबूजी हमें कुछ भी कहने,करने से हर हालत में रोके हुए
थे.बोले-चोरी हो गयी तो हो गयी,हम हैं न.उसके बक्से फिर से भर दिए बाबूजी
ने,लेकिन उस परिवार की बेशर्मी ने मुझे बेचैन तो कर ही दिया था.
आखिर एक
बेटी के सुख-चैन की ज़िन्दगी के लिए एक बाप को कितना करना पड़ता है,कितना
बिकना पड़ता है,और कितना झुकना पड़ता है..और क्यों..?आखिर क्यों..?बेटी न
पैदा की,जैसे महापाप कर डाला हो कोई और एक अंतहीन प्रायश्चित किये जा रहे
हैं, किये जा रहे हैं,यही सब सोच-सोचकर मेरी नसें तड़तडाने लगती थीं
जैसे.इतना सब होने के बावजूद अचानक जब उसकी सासू माँ बीमार पड़ी तो लड़की
भईया-बाबा सब भूलकर उनकी सेवा में जुट गयी.बाद में पता चला कि उनको कैंसर
है.बड़ी बहू पति के सात चली गयी और छोटी बहू ने सास की सेवा का जिम्मा उठा
लिया.पूरे सालभर बिस्तर पर ही रहीं वे.हालत यह हुई कि वजह चाहे कुछ भी
हो,उनके लिए बिस्तर से उठना संभव नही था.उन दिनों में उनके दो बेटे और एक
बहू परदेस में रहे और एक गुडिया की एकनिष्ठ सेवा ने जितना हो सकता था.उतना
आराम उन्हें दिया.
लेकिन उनके चले जाने के बाद घर एकदम से नंगा हो गया.लगा
जैसे उस घर का पर्दा ही उड़ गया हो.उनकी मृत्यु के 1 साल के बाद चाचा के
लड़के की शादी में हम गुडिया को घर ले आये.घर में बहुत भीड़ थी.शाम के वक्त
छत पर गुडिया अकेली बच्चों के साथ बैठी थी.मै उसे खोजते हुए उसके पास
पहुंचा तो मुझे देखते ही वह मुह बिचका-बिचका के रो पड़ी.अब उसका रोना तो
मुझे मार ही डालता था.मैंने घबरा के उसे पकड़ लिया.क्या हुआ....क्या
हुआ..?मैंने पूछना शुरू किया.किसी तरह जब्त करके उसके मुह से दो बोल
फूंटे-भईया,मुझे मारा उन लोगों ने......अरे,इतना सुनते तो मेरे आग ही लग
गयी.उस वक्त मेरी बुद्धि एकदम से फिर गयी.सब कुछ उल्टा पुल्टा हो गया.दो
मिनट तक चुप-चाप उसे सहारा देता रहा,किसी तरह अपना रोना रोके रक्खा,उसके
आंसू पोछे फिर नीचे भागा.बहन मुझे रोकती रही-भईया,अभी कुछ मत
करिए.....
लेकिन अब सुनता कौन था.....!तीन-तीन,चार-चार सीढियां कूद कर मै
नीचे आया और सीधे बाहर दरवाजे पर आकर बाबूजी के सामने चिल्ला पड़ा.बाबूजी के
सामने किसी का चिल्लाना घर में एकदम नई बात थी.सामान्य मनोदशा में आँख
उठाकर बात करने की हिम्मत नही पड़ती थी किसी की.मेरी आवाज़ का शोर सुन कर
जैसे सनाका छा गया सबपर.पूरा घर,औरतें-बच्चे सब घर से बाहर आ गये,बाबूजी
तख़्त पर बैठे चुप-चाप मेरी ओर देख रहे थे-क्या हो गया लड़के को,वे सोच रहे
थे और मै चिल्ला रहा था-मार डालिए उसको,काट डालिए उसको,अरे ज़हर ही खिला
दीजिये किसी तरह,जान छूटे इस लड़की से.अरे,किसलिए मर्द बने फिरते हैं
हमलोग,आप की दरोगयी किस दिन काम आएगी,आपकी सिखाई मर्यादाओं के बोझ के नीचे
मेरी बहन की जान जा रही है.
और आप साधू बने बैठे है..?फूंक दूंगा सारा घर और
मार डालूँगा उन सालों को................हे भगवान,मुझे अब याद नही आता
मैंने क्या-क्या कहा उस दिन.इस बीच बाबूजी ने खड़े होकर मुझे सख्ती से थाम
लिया था,चिपका लिया था और पूछ रहे थे-क्या हुआ है..?क्या बात है कुछ बताओ
तो..?इसी बीच गाय-सी कांपती हुई गुडिया भी सामने आ खड़ी हुई.और अपनी पीठ पर
से साडी हटा दी------लाल-लाल साट,जो जहाँ था वो वहीँ खड़ा
था,चुप-चाप,सन्नाटा-आवाज केवल गुडिया के सिसक-सिसक कर रोने की और मेरे
हांफने की आती थी.गजब के धैर्य वाले थे बाबूजी लेकिन.हम सब से ज्यादा प्रिय
उनको वही थी.सब उनको ही देख रहे थे.बाबूजी को जैसे काठ मार गया हो,खड़े-खड़े
बेटी की पीठ सहला रहे थे और आंसू पी रहे थे.आवाज़ नही निकल पा रही थी उनकी
लेकिन संभाल ही लिया उन्होंने खुद को.उसके आंसू पोछे,मेरा सिर सहलाया,सबको
बटोरा,घर में आये.वह रात हम पर बहुत भारी बीती.थोडा शांत होने के बाद
उन्होंने गुडिया से सारी बात विस्तार से सुनी-सास के होने तक तो ऐसी हिम्मत
नही की किसी ने,
लेकिन उस दिन देवर के आदेश पर तुरंत ध्यान न देने के
अभियोग में विवाद इसलिए बढ़ गया कि 'अभी-अभी' 10 साल पहले आई बहू ने देवर को
जवाब कैसे दे दिया.अरे नींद आ गयी थी,तो माफ़ी मांग लेती.चचिया सास ने
ललकारा था और देवर ने मारा था.गुडिया ने बताया-बाबूजी,मैंने भी भगौना खींच
के मारा और चार साल के ऋषभ ने भी लोटा खींच के.
चार दिन बाद ही मेरे
घर में शादी थी.लेकिन तब तक हम इंतज़ार नही कर सकते थे.उफ़......कितनी
जकडन,कितना बोझ होता है अपनी-अपनी तरह के समाजों का.......!बाबूजी अब भी
समझाने की मुद्रा में थे-चार दिन रुक जाओ,शादी के बाद चलेंगे और पूछेंगे.हम
सत्य,अहिंसा और ज्ञान-विज्ञान सब भूल गये थे.हमने बाबूजी को जवाब दिया-हम
जा रहे हैं फैसला करने,आप आइये,चाहे मत आइये...और हम चल दिए,बाबूजी भी चल
दिए.रवि एक दिन पहले ही मुंबई से आया था.वहां पहुंचकर गाडी खड़ी करते ही
बाबूजी के रोकते-रोकते भी हम उग्र हो गये.हमने चिल्लाकर कहा-बाहर निकलो
हरामजादों.आज हम कन्यादान वसूलने आये हैं.भर्र से घर से सब के सब बाहर
निकले,उसके तीनों,चारो ससुरे भी निकले,रवि भी आया.धीरे-धीरे पूरा गाँव ही
इकठ्ठा होने लगा.और उस दिन हमपर बाबूजी का नियंत्रण बिलकुल नही था.वे बहुत
परेशान थे.सब मिलकर मुझे ही समझाये जाते थे.और लीपापोती करने में लग गये
थे.रवि भी हमसे 'शांत रहिये' की गुहार लगा रहा था.
कुछ अंदेशा पहले से सबों
को था,इसलिए एक चालाकी की थी सबने.उसके देवर को कहीं छुपा दिया था.बाबूजी
ने भद्र-समाज के सामने बेटी का सवाल रक्खा.भीष्म पितामहों के सिर नीचे हो
गये.शब्द-व्यापार चलने लगा.गाँव वाले छि-छि कर रहे थे.गुडिया के स्वभाव,सास
की सेवा और उसके व्यवहार से प्रभावित महिलाओं और उनके घर वालों ने हमारा
पक्ष तो लिया लेकिन दबी जुबान से ही.इतने बड़े पंडित जी से कौन दुश्मनी
ले.कुलमिलाकर बात ''छोडिये,जाने दीजिये.'' की ओर घूमने लगी.और यह बात कम से
कम मेरे लिए तो बर्दाश से बाहर की थी.रवि का चाचा शकुनी मामा बना बैठा
था.उसने मेरे जले पर नमक छिड़क ही तो दिया-आप तो पानी की तरह बोल रहे हैं,ये
लड़का आपका बड़ा ताव खा रहा है.दूसरी शादी करेगा क्या बहन की..? वह अभागा
नही जानता था कि उस दिन मेरे ऊपर काल सवार था.कुछ नही देखा,बस दौड़ कर उसको
गर्दन से पकड़कर घसीट लिया धूल में और आस-पास सब कुछ भूल के सैकड़ों गालियों
से उसका अभिषेक कर दिया-कर दूंगा कुत्तों.दूसरी शादी भी कर दूंगा,लेकिन अब
यहाँ नही भेजूंगा.कान खोल के सुन ले,जेल में चक्की पिसवाऊंगा सबको.तब तक
भीड़ ने उसको मेरे हाथ से छुड़ा लिया था.मेरे क्रोध से 'सभ्य-समाज' मेरे
विरुद्ध हो गया.बाबूजी भी शर्मिंदा हुए, लेकिन मुझे कहाँ किसी की पड़ी
थी.अफ़सोस ये रहा कि वो लड़का मेरे सामने नही आया,वर्ना आज हम कहीं 302 की
सजा काट रहे होते.रवि भी नाराज़ था.हम बाबूजी को लिए-दिए घर आये और बहन को
भी अपना निर्णय सुना दिया-नही जाना तुझे उस घर में अब.उस समय तो सबने सुन
लिया,लेकिन हाय रे लड़कियों,हाय रे तुम्हारा मन......!इतने सबके बावजूद भी
शादी तोड़ने के नाम पर गुडिया राज़ी नही होती थी.
कहती थी वो तो सीधे हैं,उनका
क्या दोष.....!लेकिन हम भी भरी महज्जत में चुनौती देकर आये थे,सो उस घर
में तो नही भेजना था,शादी भले न टूटे.मुझे समझाने वालों की संख्या सैकड़ों
में थी.अम्मा,बाबूजी और गुडिया का चेहरा चुप-चाप ये काम करता ही रहता था.एक
बाबूजी ही थे,जो कभी-कभी मुझे घुड़क भी देते थे-तुम कौन हो ये निर्णय करने
वाले.....?और रहेगी कहाँ वो,अगर वहां नही जायेगी तो...?उधर से तो मुझे
धमकियाँ भी आने लगी थीं.लेकिन इन सब बातों से बेखबर मुझे बस एक ही धुन सवार
थी-गुडिया के लिए एक अच्छी-सी नौकरी की तलाश,बस..मै जानता था कि इस हालत
में खुले मन की,पढ़ी-लिखी मेरी बहन के लिए एक नौकरी मिल जाए,तो उसके लिए दवा
बन जायेगी.अम्मा अकेले में मुझे आशीर्वाद देती थी-तुम्हारे माथे चंदन लगे
बेटा,भगवान् तुम्हारी सुन ले.हमने सब ईश्वर पर छोड़ा,हिम्मत जुटाने लगे और
रास्ता तलाशने लगे.
एक और कहावत उन दिनों मेरे सिर पर हथौड़े की तरह बजाई
जाती थी-अरे बेटा,दस लड़कों को पाल सकते हो,लेकिन एक बेटी का बोझ बहुत भारी
होता है....माय फुट...मै दांत पीस कर निकल जाता था.करते-करते गुडिया तीन
साल मायके में रह गयी,लेकिन इसी बीच ईश्वर ने मेरी सुन भी ली.मेरे हाथों
गुडिया के लिए एक बढ़िया काम का जुगाड़ हो गया.अब एक नई समस्या खड़ी हो
गयी.अम्मा बाबूजी मुझे इस बात के लिए समझा रहे थे कि नौकरी की व्यवस्था रवि
के लिए करना ज़रूरी है.बाद में ये बात कुछ मुझे भी समझ में आने लगी.कुछ
मित्रों और मेरे कुछ अजीजों ने मिलकर वह व्यवस्था भी कर दी.मैंने सन्देश
भेज कर रवि को बनारस बुलवाया.
नाक मुंह फुलाए-फुलाए ही रवि ने नौकरी ज्वाइन
कर ली.तीन-चार महीने बाद गुडिया को भी घर से बुला लिया और उसकी वही नौकरी
उसे मिल गयी,जिसे उस समय बाबूजी ने करने नही दिया था उसे.दो स्वयंसेवी
संस्थाओं में अलग-अलग नौकरी करते हुए दोनों यहीं मेरे घर में बच्चों के साथ
कुछ महीने रहे.फिर यहीं 'कोनिया' में अपनी व्यवस्था जमा ली.दो साल बाद ही
रवि को अनुभव के आधार पर कनाडा की एक संस्था ने बिहार में जॉब दे दी और वह
मोतिहारी चला गया.गुडिया यहाँ अपने बच्चों के साथ फिर अकेली छूट गयी.कहने
लायक एक ख़ास बात ये कि मेरे अनुभव बताते हैं कि औरतों में संघर्ष करने का
माद्दा पुरुषों से अधिक होता है.पिछले 6 सालों में गुडिया ने फिर एकाकी
जीवन ही जिया.बच्चों की परवरिश और अपनी नौकरी के साथ ताल-मेल
बनाते-बिठाते,यहाँ-वहां दिन-दिनभर भागते अथक श्रम करते मैंने अपनी ही छोटी
बहन को लगातार देखा..लगातार देखा.रवि महीने में एक बार बनारस आते रहे और
गुडिया का संघर्ष चलता रहा.इसी दौरान,इन्ही संघर्षों के बीच बाबूजी को
अंतिम बीमारी ने घेरा.हम सब बाबूजी को क्षीण होते और विदा लेने की तैयारी
करते निरीह भाव से देखते रहे.अपने अंतिम दिनों में जीभ के कैंसर से घायल
बाबूजी बोल नही पाते थे.एक दिन जब हम घर में नही थे तो वे गुडिया के सामने
हाथ जोड़कर खड़े हो गये.लटपटाती जुबान से कहा था-हमने तेरे साथ गलती कर दी.वह
रो पड़ी-बाबूजी, ऐसा मत कहिये,आपकी ये बातें सुनकर और आपका यह चेहरा याद कर
के हम कैसे जियेंगे.तब बाबूजी ने कागज़ पर लिखकर उसे चुटका पकड़ाया.लिखा
था-भईया है न.
ओह......गला रुद्ध हुआ पड़ा है.कलम चलती नही है लेकिन
अपनी ही बहन के साथ आज मेरी कलम को न्याय करना है तो रुकूँ कैसे.उम्मीदों
और विश्वासों का कितना सारा बोझ मेरे सिर पर छोड़कर बाबूजी तो चले
गये.गुडिया और रवि की गृहस्थी संवारने में दोनों ने बहुत मेहनत की.बच्चे
बड़े हो गये,रवि ने भी खूब तरक्की की.अभी एक महीना पहले उनकी ऑफिस ने एक और
प्रमोशन देकर उनको बक्सर भेजा तो शाम को गुडिया मिठाई लेकर घर आयी,हमने
पूछा-ई का रे..?बोली-भईया अब नौकरी नही करेंगे हम,उसी की ख़ुशी में मिठाई
खिलने आये हैं.पूरी बात सुनी तो दिल भर आया.बोली हम बक्सर जा रहे हैं.हंस
रही थी,रो रही थी,खुश थी,उदास थी....लेकिन आपसब मेरी ख़ुशी का अंदाज़ा लगाइए
जब उसने मुझसे कहा-हम साल,दो साल में लौटकर फिर बनारस ही आयेंगे.मेरे लिए
एक बिस्सा ज़मीन खोज कर रखियेगा भइया.
मैंने पूछा-इतना जमा कर लिया क्या
रे..?तो बोली-सब आप ही का किया-धरा है,हम क्या जमा करेंगे.इन्ही बीते सालों
में वह समय भी आया और गया जब सबके साथ-साथ गुडिया भी मुझे समझाने लगी कि
भईया घर से क्या दुश्मनी है.घर छोड़ देना कौन-सी समझदारी है.तन के कितने दिन
रहा जा सकता है.बीती बातें भूलनी भी चाहिए.गुस्सा कब तक पालेंगे..?अब मै
उसे क्या बताता,कि इसी गुस्से के बल पर तो मै उसे ये छोटी सी दुनिया दे
पाया हूँ.खुद पर ही हंसी आ जाती और वह इधर मुझे समझाती जाती,उधर अपने टूटे
छूटे रिश्ते आ-जा कर संजोती जाती,संभालती जाती.जिस बात के लिए मैंने बाबूजी
की भी एक न सुनी,उस बात के लिए मैंने उसके सामने,उसी की ख़ुशी के लिए
हथियार डाल दिए.
उसे हर बार मुझसे इजाज़त लेनी पड़ती थी.मैंने एक लाइन में
अपनी बात कह दी-देख गुडिया,तेरे ही खुशी और सम्मान के लिए वह घर छुड़ाया था
तुझसे.बाबूजी दुनिया से चले गये लेकिन वहां फिर कभी नही गये.अगर तेरी ख़ुशी
के लिये मुझे वहां भी जाना पड़े तो कभी जाऊँगा ही.तेरी तो किस्मत ही उस घर
से बंधी है,मै कबतक रोकूंगा..जाओ.आपको बताऊँ कि उसने अपना सबकुछ संभाल
लिया.मैंने सुना,रवि ने अपने भाई को बुलाकर उससे माफ़ी भी मंगवाई.सब ठीक हो
गये.सब एक हो गये.लेकिन ये भी सुनता हूँ कि अब जब गुडिया उस घर में जाती
है,तो लोग उससे डरते भी हैं,उसका सम्मान भी करते हैं.उसके ससुर अंतिम दिनों
में अपनी पत्नी की सेवा के लिए उसके एहसानमंद भी होते हैं.और अपनी सबसे
लायक बहू बताते नही थकते हैं,अलबत्ता मेरे साथ उनका कोई रिश्ता अब भी नही
है.अपनी नौकरी के दौरान गुडिया ने देश खूब घूमा,दिल्ली से मदुरई तक तमाम
शहरों में महिलाओं के मुद्दों पर कई मंचों से उसने खूब भाषण दिए.उसकी ख़बरों
और चित्रों वाले अखबारों की कटिंग्स से बनी उसकी फ़ाइल देख कर उसके गाँव
में बड़ी-बूढ़ियाँ कहती हैं-दरोगा की बेटी है,पढ़ी-लिखी है,चूल्ह पोतने के लिए
थोड़ी न भेजा था उसके बाप ने वगैरह....वगैरह...वगैरह....वगैरह.....!!
ये थी वो कहानी,जिसका मैंने वादा किया था आपसे.अपने इन्ही अनुभवों से
गुजरने के बाद मैंने कभी लिखा था कि घर की पुरानी औरतों और नयी बहू के बीच
जो दो पक्ष बन जाते हैं,उसमे दोनों के औरत होने के बावजूद ये जो शोषण का
रिश्ता बन जाता है,उसे देखकर बहुतायत में लोगों को यह कहते सुना जाता है कि
औरत ही औरत की दुश्मन होती है.वास्तव में ऐसा होता नही.जब हम कहते हैं कि
औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है,तो जाने अनजाने एक बड़ा अपराध कर गुजरते
हैं,औरत की लड़ाई को कमजोर कर देते हैं.थोड़ी बारीकी से देखें तो इस मर्दवादी
किस्म की बात का अर्थ समझ में आएगा.गुलामों की परम्परा को जरा करीब से
देखिये.जमींदारों के घर जो हरकारे,नौकर होते थे..
वो उन्ही गांवों,समाजों से
होते थे,जिनपर जमीदारों का जुल्म कहर बन के गिरता था..अपने ही समाज और
अपने ही लोगों पर ये लोग जमींदारों को खुश करने,उनकी कृपा हासिल करने के
लिए उनसे आगे बढ़ के कहर ढाते थे..लेकिन यहाँ आप ये नही कह सकते कि गाँव
वाले ही गाँव वालों के दुश्मन होते थे..असल अपराधी तो वो था,जिसके
कृपापात्र बने रहने और अधिक से अधिक लाभ पाने के लिए उसके करीब रहने वाले
लोग अपने ही लोगों को सताते थे...एक और उदाहरण से समझें....जलियांवाला बाग
में आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने वाले सिपाही हिन्दुस्तानी ही थे.अंग्रेज
जनरल ने तो केवल आदेश दिया था...तो क्या हम कह सकते हैं कि हिन्दुस्तानी ही
हिन्दुस्तानी के दुश्मन थे....??ठीक उसी तरह यह नही कहा जा सकता कि औरत ही
औरत की दुश्मन होती है...ये केवल बड़े गुलाम और छोटे गुलाम वाला मामला
है..ये बड़े गुलाम मर्द साहबान के करीब होते हैं और उनकी नज़रे इनायत पाने के
लिए छोटे गुलामों पर कड़ी नजर रखते हैं,बस इतनी सी तो बात है..औरत औरत की
दुश्मन है,ये कहने से लड़ाई में कमजोरी आती है...
एक बात मुझे ये भी
लगती है कि किसी लड़की के वैवाहिक जीवन में इस तरह का जो अंतहीन दर्द आता
है,उसकी जिम्मेदारी निर्विवाद रूप से उसके पिता और भाई पर आयद होती है...
इस समस्या की जड़ें हमारे ही स्वार्थ के अंधे कुँए में कहीं हैं.इस बात से
मै पूरी तरह सहमत हूँ कि शादी के नाम पर एक घरेलू नौकरानी का इंतजाम करने
वाले समाज के रहवासी हैं हम.तीन किस्म की गुलामी में घेरते हैं हम अपनी
बेटियों को.उसका विवेक निर्णयात्मक हो,इसके लिए उसे पर्याप्त शिक्षा नही
देते..उसका आत्विश्वास मज़बूत हो,इसके लिए उसको अपने फैसले खुद करने की
आज़ादी नही देते..और वह खुद आत्मनिर्भर हो सके,इसके लिए अपनी जायदाद में
हिस्सा नही देते...और बस समस्या की जड़ यहीं है.हम ये कह के मुक्त हो लेते
हैं कि बेटी तो ससुराल से भी पाती ही है.क्या पाती है बेटी ससुराल से...?जो
दहेज़ लेकर किसी की बेटी ले जाते हैं,वे क्या जायदाद देंगे उसे...?पिता और
भाई होने के नाते हम खुद अपनी बेटियों को जो देने का स्वांग करते
हैं.....
दान,दहेज़,नेग,वगैरह,मै तो कहता हूँ कुछ मत दो.केवल अच्छे से पढ़ा दो
भाई..और जैसे बेटों में बांटते हो,जमीन और घर का एक हिस्सा और लगा
दो...खाली जुबानी जमाखर्च नही,कागज़ पर...जिस दिन बेटी के पास ससुराल से
पलटकर वापस आने का एक अपना रजिस्टर्ड ठिकाना होगा,अपना एक घर होगा,उस दिन
डोली-अर्थी के चक्रव्यूह से वह मुक्त हो जायेगी, जिस दिन बुरे वक़्त में
सहारा बनने के लिए उसके पास अपने रिश्ते और अपनी आर्थिक व्यवस्था होगी, उसी
दिन से वह आत्मसम्मानी, आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर हो जायेगी..पत्नी और
बहू के साथ व्यवहार करना अगर हमे नही आता,तो यही कर डालो...बेटियों की आँख
के आंसू तो सूखें....हर पिता से मेरा आग्रह है कि आप दीजिये अपनी बेटी को
वो सारे हक.उसके सारे अधिकार.
बेटी न हो तो भतीजी को दिलवाइए.किसी एक भी
बेटी को अगर आप उसके बाप की हैसियत में से उसका हिस्सा दिलवा सके...तो समझ
लीजिये हजारों,लाखों बेटियों,बहनों,लड़कियों के हक़ की लड़ाई को दिशा मिल
जाएगी...मै अपनी बेटी के नाम अपने घर और ज़मीन में उसके दोनों भाइयों के साथ
१/३ हिस्सा दूंगा.ये मैंने सबको बता रखा है.. औरतों को लड़ना होगा,लड़ना
होगा,ये कह के तो हम आखिरी उम्मीद भी ख़त्म कर देते हैं..अरे उसका सत्यानाश
तो हमने कर रखा है.....तो वो क्यों लड़े..लड़ना तो पुरुषों को ही चाहिए औरत
के हक की लड़ाई...मैंने लड़ी है दोस्त अपनी बहन के हक की लड़ाई..अभी बहुत कुछ
बाकी भी है,जानता हूँ मै...