शिखा परी
तलाक तीन बार था पर वो
सीधे रूह पे खंज़र की तरह लगा
कान फ़ाड़ कर किसीने खून निकाल दिया था जैसे
मैंने होश संभाला, जोश भी
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वो प्यार मेरा अधूरा ही रह गया
जजसे पूरा समझ रही थी
कोशिश थी जिसे पूरा करने की
वो बंदगी टूट गई
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तुमसे ज़्यादा समाज ने नफ़रत की मुझसे
नाकामयाब मुहब्बत की मैंने
सहेलियों ने ताना मारा
रूह कांप उठी पर मैं वहीँ चुपचाप खड़ी
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दहेज़ अधूरा तो नहीं रह गया
माँ सोचने लगी
सारा सामान वो फिर से कल से देख रही हैं
पिताजी अब बाज़ार नहीं जा रहे
लोगो के सवाल खड़े रहते हैं
घर में ही उन्होंने आज दूध रोटी ख़ाली
लोगों को बातें ही तो बनानी है
क्यों न बनाये?
वो आसान होता है सबसे कुछ भी कह देना
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
13/10/2019 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
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धन्यवाद
बहुत बहुत दिल से धन्यवाद
Deleteबहुत ही मार्मिक रचना शिखा जी | एक तलाकशुदा औरत के मन के मर्म को उद्घाटित करती रचना मन के विकल भावों का दर्पण है जिसे आपने बहुत ही डूबकर लिखा है | भावपूर्ण लेखन के लिए मेरी शुभकामनायें |
ReplyDeleteBahut bahut dhanyawad
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