वो शादी का घर है
वहां बहुत काम है
तुम्हें नहीं मालूम ?
क्या -क्या नहीं लगता
इक शादी का घर बनाने के लिए
कोने- कोने से टुकड़े जोड़ने होते हैं
तब जाके कहीं एक बड़ा सा-
नज़रे आलम में दिलनशीं टुकड़ा
शक्ल अख्तियार करता है
तुम्हें क्या मालूम।
नहीं कटा वक़्त
उठाई कलम लिखने बैठ गए
अच्छे खासे मौजू का बिगड़ने बैठ गए
नहीं कुछ मिला
तो किसी का सुनाने बैठ गए
हद तो तब हों गयी
जब किसी का गुस्सा
किसी और पर उतारने बैठ गए
तुम्हें क्या मालूम ?
बर्तन , जेवर , बेहिसाब पोशाकें
कहाँ -कहाँ से पसंद करनी होती हैं?
नहीं , फब नहीं रहा है
वो देना तो जरा
न जाने ऐसे कितने लफ्ज़
गूंजते ,बस गूंजते रहते हैं
तुम्हें क्या मालूम।
बस उठायी किताबें पढने लगे
कभी फिजिक्स , तो कभी मेथ्स
नहीं लगा मन
तो अदब उठा लिया
अरे तुम क्या जानो ज़िन्दगी जी के
कभी किताबों और माजी के पन्नों से
बहार निकलो
ज़िन्दगी रंगीन भी है।
तुम पन्ने ही रंगते रह जाओगे
और दूर कहीं आसमानों में
कोई एक अदद ज़िन्दगी बसा लेगा
तुम्हें क्या मालूम।
तुम्हें क्या मालूम?
होटल का ऑर्डर
खान्शामा का इंतजाम
बाजे वाले का एडवांस
और भी बहुत से
करने होते हैं इंतजाम
शादी का घर है न ?
तुम्हें क्या मालूम।
वहां तुम सिसकते रहते हों
कभी तड़पते रहते हों
सुना है आजकल बेचैन रहते हों
कुछ नहीं मिलता
तो पागलपन ही करते रहते हों
देखो, तुम खुद ही देखो
वही पुरानी जगह बैठकर
जहाँ सुनाया था हाले दिल
किसी का कभी
शिद्दत से लिखे जा रहे हों
जबकि जानते हों
कोई पढने वाला भी नहीं है तुम्हें
तुम्हें क्या मालूम?
- - शाहिद अजनबी
ajnabi sahab
ReplyDeleteshadi ki gahma gahmi
sab kuchh bikhra bikra
ajab sa aalam sare log bhagte hue.
Aur jo kuchh bacha aapne pura kar diya.
achchhi rachna.
unhe kya maalum ki aap ki bhi majburiyan hain...
ReplyDeletekoi hotel aur halwai ke intejaam me mashgul hai...
aap to shayari ka kaam liye baithe hain...
bahut khub behtarin rachna
ReplyDeletebadhai
प्रिय भाई, दोस्त अजनबी साहब....
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत नज़्म उतारी है आपने कागज़ कि ज़मीं पे....
लेकिन मैं इस नज़्म के अन्दर झाँकने कि गुस्ताखी कर बैठा
और झाँका तो लगा कि इसमें जो तकलीफ छुपी है, जो वेदना छुपी है वो किसी महज़बीन की नाराजगी या उलाहने से उपजी है...
काश ऐसी नज्में हमें बारहा पढ़ने को मिलें लेकिन ये भी दुआ है कि आपको ऐसे उलाहने ना मिलें.....
अपना लिखा कुछ याद आया ... आपकी शान में फरमाते हैं....
चराग-ए-मोहब्बत बुझते नहीं
आंधियां आयें चाहे कितनी बडीं
धूल जमती नहीं रिश्तों पे इन
रहो तुम कहीं या रहें हम कहीं
रूहें हो जाएँ इक बस वही प्यार है
जिस्म से एक होना मोहब्बत नहीं
क्यों मांगूं खुदा से तुम्हें मैं 'मशाल'
तुम मेरे हो खुदा की अमानत नहीं.
जय हिंद...
aapka apna-
Mashal
bahut bahut shukriya aapsab ke pyar wa dular ke liye.
ReplyDeleteshukriya.
shahid "ajnabi"
अजनबी साहेब क्या बात है ..काफी दिनों बाद ब्लॉग विज़िट किया तो माफ़ी चाहता हूँ ...क्या दास्ताँ उकेरी है आपने इस नज़्म में ...मुबारकबाद
ReplyDeleteआपका अनुज
"आलोक उपाध्याय नज़र "