Friday, December 6, 2019

नज़्में- दीपक मोहाल






नज़्म १ 

(ख़ुदा)

एक ही पैगाम था
तो क्यू इजाद की गई
ये अलग-अलग राहें?
क्यू बांटना पड़ा
एक ही पैगाम को
अलग-अलग
किताबों में?
क्यू तामीर नहीं की गई
एक ही मुकद्दस किताब?
के जिसमें सिर्फ मुहब्बत मुहब्बत
और मुहब्बत होती.....
इसके अलावा कुछ नहीं
जिसे एक होना था
गर वो एक होता
तो फिर क्यू बंट गया 
अलग-अलग खानों में?
क्यू मुत्तासीर है वो
अलग-अलग नामों से?
क्यू रहने लगा
मंदिर,मस्जीद,चर्च, गुरूद्वारे में?
क्यू वो एक जगह या हर जगह नहीं रहता?
क्यू मैं उसे मंदिर में और
कोई मस्जीद में तलाशता है
क्यू नही कहता वो
अपनी गवाही में कुछ?
क्यू इख़्तियार कर ली
उसने ख़ामोशी?
क्या वो सुन नही पाता
उसके नाम पर होने वाले
ये फ़सादात, ये शोर शराबा?
दरअसल मेरी शिकायत
ख़ुदा से है
इन्सा से नहीं


 



 नज़्म २ 

 (हसरत)

मुमकिन था के
मुझे तलाशने न पड़ते
मौजू मुस्कुराने के लिए
मुस्कुराता मैं वज़ह, बेवजह.....
मुन्तजिर न होना पड़ता
किसी वाकीये का
जो देता सुकून मेरी रुह को.....
मेरे निगाह की बिनाई भी
देख पाती तारे दिन में
या फिर धूप 
किसी सियाह रात में.....
बंद न करनी पड़ती मुझे
आंखें ख्व़ाब देखने की
खातीर.....
मेरे हाथों की छूवन भी
महसूस करती कांटों को
फूलों की तरह.....
कभी इल्म न होता मुझे
अपने अधूरेपन का.....
इंतेखाब न करनी पड़ती
ये दुनिया की बनी बनाई राहें....
महसूस न होता ठहराव
मुसलसल इक रवानी होती
महदूद न होता कोई सफ़र
ना महदूद होती ये ज़मीं, आसमां....
कायनात में लम्हें नहीं
लम्हों में सिमट आती ये कायनात.....
सब कुछ दस्तरस में होता
जाया न करनी पड़ती
बची हुई सांसें खुदपर
जिन्हें ख्वाहीश थी मेरी 
के मैं लुटाता तुम पर.....
मुमकिन होता नामुमकिन भी....
पर क्या ये मुमकिन नहीं था?
के तुम मेरे साथ होती .....







नज़्म ३ 

(जिंदगी-ए-ग़ज़ल)

तुम्हें ये इल्म ही नहीं 
के ये जिंदगी भी किसी
ग़ज़ल की तरह है
इस में भी 
वज्ऩ है...
बहर है....
मीटर है....
मतला है....
मक्ता है....
काफ़िया है....
रदीफ़ है....
इन सबसे हीं
इसकी वजाहत है
मैं किसी काफ़िये के मानिंद हूं
और 
तुम रदीफ़ की तरह....
ये सदा-ए-वक्त है
के लौट आओं
सुनो
ग़ज़ल मुकम्मल
होना चाहती है






नज्म़ ४

(तुम)

ये फूल, ये तितलियां, ये पौधे
ये पहाड़, ये नदियां, ये झरने
और इन झरोनों कि सदा
तो झूठ नहीं बोलती......
ये ज़मीं, ये आसमां
ये आग और उठता धुंआ भी 
तो झूठ नहीं बोलता......
ये सुबह, ये दिन, ये रात
ये वादियां,ये फ़जा, ये कायनात
ये भी तो झूठ नहीं बोलेंगें.....
मैं जानता हूं
तुम अभी जहन से बोल रही हों
इस लिए मुकर रही हों
चाहो तो सुनो अपनी
दिल की रूह की आवाज
वो झूठ नहीं होगी
आंखों को मुंद लो और देखो
तुम्हें मैं ही नज़र आऊंगा
जब हर सम्त मुझे देखोगी
तो क्या कहोगी 
ये नजरें भी झूठी है
तुम मेरी और मैं तुम्हारे रूह का
हिस्सा हूं
जो कभी जुदा नहीं हो सकता
तुमने कहा था कि
तुम्हें अल्लाह पर यकीन है
तो सुनो
ये अल्ल्लाह का इल्हाम है
के तुम हमेशा से
मेरी थी....
मेरी हो.....
मेरी रहोगी......

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