Friday, February 27, 2009

ग़ज़ल

हमारी तकनीकी टीम के सदस्य आलोक उपाध्याय "नज़र" की ग़ज़ल का लुत्फ़ उठायें

कभी सहरा सा लगे कभी समन्दर सा लगे
मुझे अच्छा लगे जब भी तू बेखबर सा लगे

मै तेरी हर बात पर ही मोम सा पिघला हूँ
और तू है कि इस बुरे दौर में पत्थर सा लगे

मै बेबाक़ ऐसे ही चुभता हूँ पहले ही समझ ले
इससे पहले कि कोई लफ्ज़ तुझे नश्तर सा लगे

वो मेरे साथ है ये दुनिया समझती है मगर
मुझे तो ये फासला एक लम्बे सफ़र सा लगे

मुश्किलें शायद इतनी पड़ी कि आसां हो गयीं
हर रंज ओ ग़म तेरे चहरे पर बेअसर सा लगे

फितरतों के इस खेल को अब तक न समझा
"नज़र" को जो भी लगे बिलकुल नज़र सा लगे

-आलोक उपाध्याय 'नज़र'

1 comment:

  1. khubsurat gazal..
    gazal ka har ek ashaar haqeekat ko bayan karta hai.

    मै तेरी हर बात पर ही मोम सा पिघला हूँ
    और तू है कि इस बुरे दौर में पत्थर सा लगे

    मै बेबाक़ ऐसे ही चुभता हूँ पहले ही समझ ले
    इससे पहले कि कोई लफ्ज़ तुझे नश्तर सा लगे

    gazal ki jaan hain ye ...ashaar.

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