Saturday, February 28, 2009

अपना सा शहर

कभी मंजिलें तो कभी सफ़र ढूँढती नज़र आई,
वो मुझे रोज़ रह गुज़र ढूँढती नज़र आई।

मैं छुपता रहा उससे कई बार और वो,
सरे बज़्म मेरी नज़र ढूँढती नज़र आई।

एक हम जो बेवफाई करके भी भूल गए,
एक वो, हर दुआ का असर ढूँढती नज़र आई।

हम ढूँढ़ते रहे इस शहर में अपना सा कोई,
और वो मुझमें अपना सा शहर ढूँढती नज़र आई।

दुआओं की तरह बदल लिए थे जो चेहरे,
मौत तुम्हे इधर तो मुझे उधर ढूँढती नज़र आई।

धड़कता है दिल तो लहू भी छनता होगा,
सासें फिर वही जिगर ढूँढती नज़र आई ।

रिन्दों को तो सुना है मिल गया था खुदा,
दुनियाँ भी उसे अब इस कदर ढूँढती नज़र आई।

ऐसे भटका कि भूल गया 'अरे तू भी तो थी !
ख़ुशी बेशक मुझीको मगर ढूँढती नज़र आई।

चाँद में ज़िन्दगी के निशां ढूंढते हो मियां ?
और ये, इस जहाँ में गुज़र ढूँढती नज़र आई।

लाखों करोडों के इस 'नीती' शास्त्र में यारों ,
वो 'दर्शन' का सिफर ढूँढती नज़र आई।
(दर्शन= फिलोसोफी)

- दर्पण साह "दर्शन"

2 comments:

  1. bahut khoob Gazal, haqiqat bayan karti si hai but shuruati 6-7 sher hi rakhen to kafi jyada wazan nazar ata hai warna last 2-3 sher isko kalka sa karte lagte hain.
    jst a suggestion plz don't take as critisism. i love ur poetry by heart. all the best for next.

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  2. हम ढूँढ़ते रहे इस शहर में अपना सा कोई,
    और वो मुझमें अपना सा शहर ढूँढती नज़र आई।

    gazal ka wajani sher...

    badhai ho ...

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