Monday, February 16, 2009

ग़ज़ल

सुबह उठकर हमने यही हर बार देखा है
हर तरफ़ बस फिक्र -ऐ रोज़गार देखा है

पिछली शब् की बस इतना सी दास्ताँ है
बिस्तर की सिलवटों को बेकरार देखा है

नहीं मानते अब इन काठ के खिलौनों से
मेरे बच्चों ने जब से रिमोट का बाज़ार देखा है

जवानी में ज़माने की रंगत का सबब और
जेहन पर इश्क का एक झूठा खुमार देखा है

जो कभी पोशाक की तरह फबते थे रिश्ते
अब जब गौर से देखा है तार तार देखा है

तुम चाहो तो निगाह-ओ-रुखसार में उलझो
'नज़र' ने उनके दिल के आर पार देखा है

- आलोक उपाध्याय "नज़र"

2 comments:

  1. जो कभी पोशाक की तरह फबते थे रिश्ते
    अब जब गौर से देखा है तार तार देखा है

    तुम चाहो तो निगाह-ओ-रुखसार में उलझो
    'नज़र' ने उनके दिल के आर पार देखा है

    vaise to sabhi sher achchhe hain ye do khaskar dil ko chhoo gaye, please thoda matraon ka khyal rakhen to achchha hoga vaise aap behtar samajhte honge, mujhe laga ki agar kabhi kisi ne gane ki koshish ki to use pareshani hogi, best wishes

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