Thursday, April 2, 2009

फिर से धक् होती है

यहाँ हर एक मंज़र का विरोधाभास होता है ,
कहीं कपड़े नहीं होते , कोई तन को भी रोता है ।
तेरे माँ - बाप से प्यारे , तुझे तेरे ये बच्चे हैं ,
यही काटेगा कल को तू , कि जो तू आज बोता है
इन्ही गीता के वर्कों में तेरे ख़त को भी पाया है ,
अरे! क्या लेके आया है, अरे! क्या तुझसे खोता है ?
कि फिर से आये हैं बदरा , कि फिर से धक् होती है ,
कि फिर से डाले हैं झूले , कि फिर से खेत जोता है ।
वही आवारगी अपनी ,वही अपना ठिकाना है ,
ये नज़्म गर सुबहू तो शामें इसकी श्रोता है ।
मेरे इस शोक -जलसे में, के देखो तो सभी अपने,
मेरे इस क़त्ल पे 'दर्शन' कोई घड़ियाल रोता है ।
- दर्पण साह

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