Sunday, February 23, 2020

ज़िन्दगी का झाँसा

खामोश सी खामोशी हो गई
कुछ सपने जबसे छोड़कर चले गए
आँखों की स्याही भी अब सूखने लगी है
लाल स्याही आंखों से छूटने लगी है

चेहरे की लकीरें गहरी हो गई है
माथे की लकीरें अब और गहरी है
सपनें जो देखे थे बचपन में 
वो अब धीरे धीरे धुंदले हो गए हैं

अब आँखों के नीचे लकीरें है
जो इस समय ने खींची है 
जवाब अब कोई नहीं देता 
सब ज़िन्दगी सिखा देती है


वो सपनें जो अंदर ही अंदर टूट गए
ज़ख्म दे गए पर निशान नहीं
उनके टूटने से पहले ही 
हम टूट गए फिर से

शामो की ढलती रोशनी
उम्र पर भारी पड़ती है
अब एक और ज़ाया हो गई
घड़ी की टिकटिक 
और ये रूठती ज़िन्दगी

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