Wednesday, April 8, 2009

सर को झुकाए बैठे है

मुहब्बत है अजीब, आंखो में आँसू सजाये बैठे हैं
देवता नही है, फिर भी हम सपनो का मंदिर सजाये बैठे

किस्मत की बात है, दुनिया से को खुद छुपाये बैठे है
कैसे बयां करें , उन पर हम अपना सब कुछ लुटाये बैठे है

खामोश दीवारों के वीराने को हाले दिल सुनाये बैठे हैं
वो दूर है तो क्या, उनका दिल दिल से लगाये बैठे है

वो लौट कर न आयेगे, फिर भी नज़रे बिछाये बैठे है
उनसे मिलने की ललक में, सब कुछ भुलाये बैठे हैं

आँखों से आँसू इतने गिरे , की समन्दर बनाये बैठे है
वो बेरहम , और उनके सजदे में सर को झुकाये बैठे है

- गार्गी गुप्ता

4 comments:

  1. लेखन की दुनिया में एक अच्छा प्रयास , विचारों को शब्दों में पिरोते रहिये एक अच्छी रचना जरुर जन्म लेगी.
    आपके पहले प्रयास पर बधाई हो

    शाहिद "अजनबी"

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  2. Agar ye aapki pahli rachna hai to sahitya jagat aapse kafi ummeeden rakhta hai. ek uttam prayas ke liye badhai.

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  3. गार्गी जी,
    जज्बातों को शब्दों में पिरोते- पिरोते बहुत अच्छी रचना दी आपने.
    मुबारक हो.
    रुबीना फातिमा

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  4. bahar mein kuch bhi keh dene ko gazal nahin kahte. badi hi immatured koshish hai!

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