Saturday, August 22, 2009

बचाव भाग-२

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इस सब के बावजूद निंदिया का विवाह पल्लव अग्रवाल के साथ तय कर दिया गया। जिसे उसकी माता जी स्नेह से लल्लन कहकर पुकारती थीं। लोलुप लल्लन के लार से लिपे होंठ देखकर निंदिया को उल्टी आने लगती। अपने इकलौते बेटे के लिए माता जी को निंदिया इतनी पसंद आई की अपने दो लाख के लल्लन को वह सिर्फ़ पचास हज़ार में बेचने को मान गयीं। माँ और बाबा उनकी इस मेहरबानी पर कुर्बान हो गए। पौने दामों में उन्हें यह सौदा बुरा नहीं लगा। बेटी से पूछने की उन्हें भला क्या आवश्यकता थी? बाबा ने झट से एक सौ एक रुपये थमा कर पल्लव को रोक लिया। माँ ने बाबा की बीमारी और लाचारी की दुहाई देते हुए निंदिया को कमरे में धकेल दिया। नायलोन की एक सदी और कुछ मुसे हुए रुपये गोद में डालते हुए माताजी ने लल्लन को निंदिया के साथ बैठा दिया अब वे चाहें तो आपस में बात कर सकते थे। जैसे ही सब लोग बहार निकले, पसीने से लथपथ लल्लन का हाथ निंदिया के हाथ पर आ टिका। मनो बिच्छू ने डस लिया हो। अपना हाथ पोंछती वह भागी कमरे की ओर। माता जी हो हो कर हंसने लगीं। उन्हें और लल्लन को निंदिया की ये अदा बहुत भाई।

अगले ही दिन निंदिया कॉलेज से लौटी तो देखा बड़ी बुआ माँ के पास बैठी थीं, 'निन्नु देख तो सही बीबी जी तेरे लिए कितनी सुंदर साडियां लेकर आई हैं'। एक नज़र में निंदिया ताड़ गयी की साडियां बुआ के अपने विवाह की रही होंगी। बाबा से पैसे लेकर वह उन्हें अपनी कुछ पुराणी साडियां भेड़ रही थीं। बुआ के जाते ही निंदिया खूब बरसी पर इस बरसात से माँ जरा न भीगीं। साडियां सहेज कर उन्होंने तीन के बड़े वाले ट्रंक में बंद कर दीं। जहाँ उन्होंने पहले से ही कुछ नए कपड़े जमा कर रखे थे, जिनमें से सीलन की गंध आती थी।

स्कूल में निंदिया अपनी कक्षा में सदा प्रथम आती थी। उसने कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया। उसे समझ नहीं आ रहा था क्यों एकाएक वह माँ बाबा पर भरी पड़ने लगी। रूपा के मम्मी पापा तो कभी उसके विवाह की बात तक नहीं करते कम से कम उसे कॉलेज तो ख़त्म कर लेने दें। निंदिया के विद्रोह को माँ ने बाबा तक पहुँचने ही नहीं दिया। उन्हें तो लग रहा था की निन्नु की विवाह की उम्र निकली जा रही थी। यदि इस बरस उसका लगुन न हुआ तो बिरादरी के लोग बातें बनाने लगेंगे कि बेटी में कोई कमी होगी जो अब तक घर में बैठी है। पिंजरा खुला था किंतु पंख फड़फड़ाने के सिवाय निंदिया कुछ नहीं कर पा रही थी।

बिंदास रूपा ने निंदिया को न केवल घर से भाग जाने कि सलाह दी बल्कि उसकी खटाखट तैयारी भी कर दी। चचेरे और ममेरे भाइयों कि लाड़ली रूपा को धन कि कोई कमी नहीं थी. कार और ड्राईवर सदा उसके साथ रहते थे। यदि उसे कोई कमी थी तो वह सिर्फ़ माँ और पिता की, जिनके पास सबकुछ था सिवा समय के और जिसकी कमी वो पूरी करती थी उनके पैसे बर्बाद करके। निंदिया कि माँ के हाथ का भोजन करके रूपा की आँखें भर आतीं। किसी ने ठीक ही कहा है कि 'कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता।' निंदिया को लगता कि भला रूपा को क्या कमी हो सकती है और रूपा को लगता कि वह अपना सबकुछ न्योछावर कर सकती थी निंदिया के माँ बाबा के सहज, वात्सल्य और रक्षात्मक भाव के लिए। माँ को निंदिया का रूपा से अधिक मेलजोल पसंद न था। उनकी नज़रों में रूपा एक अच्छी लड़की नहीं थी। निंदिया स्वयं भी यही सोचती थी कि रूपा कुछ अधिक ही धृष्ट थी। उचित और अनुचित का अनुपात शायद व्यक्तिगत होता है। जो माँ को अनुचित लगता है, निंदिया को वो उचित लगता है और जो इन दोनों कि नज़रों में अनुचित है वो रूपा के लिए प्राकृतिक है। रूपा का बात बात में गली देकर बात करना, लड़कों के साथ खुलेआम घूमना फिरना, शाम को देर से घर लौटना और अपने मम्मी पापा से जुबान लड़ना आदि निंदिया को अनुचित लगता था किंतु मन ही मन वह चाहती थी कि काश वह भी रूपा जैसी चतुर और चुस्त होती।

निंदिया को अब लग रहा था कि रूपा को अपनी निजी बातें बता कर कहीं उसने गलती तो नहीं कर दी किंतु और कौन था जिसे वह अपनी व्यथा सुनती या जो उसकी मदद करता। कोई और चारा नहीं था।

रूपा कि एक अविवाहित मौसी धीरूबेन पटेल साऊथहॉल के एक महिला संगठन कि अध्यक्ष थीं। निंदिया कि कहानी सुनकर वह उसे अपने पास लन्दन बुलाने को तैयार भी हो गयीं। जैसे तैसे माँ बाबा से चोरी छिपे उसका पासपोर्ट बना एरोफ्लोट से सफर का एक सस्ता टिकट भी ख़रीदा गया और थोड़े बहुत सामान के साथ, जिसे वह चोरी छुपे रूपा के यहाँ इकठ्ठा करती रही थी, निंदिया निकल पड़ी एक अनजानी दिशा कि ओर। लल्लन से छुटकारा पाने कि जिद में वह ये भी भूल गयी कि उसे माँ बाबा को भी छोड़ कर जाना होगा। सोचा था कि शायद माँ कोडी गयी उसके घर से भाग जाने की धमकी काम आ जायेगी किंतु उन्होंने तो बाबा को इस बारे में कुछ बताया तक नहीं। उनमे इतनी हिम्मत कहाँ थी कि वह चूं भी करतीऔर निंदिया तो रूपा के बल पर ही कूंद रही थी। कई बार भयभीत हो उसने अपनी यात्रा रद्द करने कि सोची किंतु रूपा के डर के मारे चुप रही। इसी बीच उसकावीसा भी बन चुका था। इतना पैसा लग चुका था कि अब चाहे भी तो निंदिया पीछे नहीं हट सकती थी। उसने अपने मन को समझा लिया था कि जब बाबा मान जायेंगे तो वह झट से वापिस आ जायेगी उर 'सॉरी' कहते ही सब ठीक हो जाएगा। उधर माँ ने सोचा था कि उनकी लाडली निन्नु झक मार के अंत में करेगी वही जो बाबा कहेंगे।

इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे पर रूपा और उसका ममेरा भाई दिनेश उसे छोड़ने आये थे। निंदिया मुडमुड कर देख रही थी कहीं बाबा उसे जबरदस्ती लेने न आ पहुंचे हों। मन ही मन शायद वह यह चाह भी रही थी कि किसी तरह जाने से उसे रोक लिया जाए। किंतु कोई नहीं आया। उसकी दशा कैंसर के उस मरीज की सी थी जो अब और पीड़ा नहीं सह सकता पर मरना भी नहीं चाहता।

अगली सुबह दिनेश ने जब माँ बाबा को बताया कि उनकी जोर जबरदस्ती से तंग आकर निंदिया भारत छोड़ कर विदेश चली गयी थी तब तक वह लन्दन पहुँच चुकी थी। बाबा चिल्लाते रह गए और फ़ोन रख दिया। वे जानते थे कि इस साजिश के पीछे सिर्फ़ रूपा का ही हाथ हो सकता था किंतु पुलिस से शिकायत करके भी उन्हें क्या हासिल होता। हाँ कुछ दिनों के लिए बाबा ने रूपा का जीना अवश्य हराम कर दिया। उसके माँ बाप को भी गालियाँ दीं, जिन्हें कुछ मालूम तक ना था। बड़े लोगों कि बड़ी बातें, बड़ी व्यस्तताएं, उन्हें कब तक सुनते। उन्होंने पुलिस को बुलवाकर बाबा को घर से बाहर निकलवा दिया। रूपा ने निंदिया का पता फ़िर भी किसी को नहीं बताया। हाँ उसकी माँ से चुपचाप कह दिया कि निंदिया ठीक है और वह उसकी चिंता न करें।

लन्दन पहुँच कर निंदिया ने कई बार वापिस लौटने कि सोची पर माँ ने कभी लिखा ही नहीं कि वह वापिस आ जाए। शायद बाबा ने उसे आज भी माफ़ नहीं किया है। अब वह उन्हें दोष नहीं देती बल्कि जब जब वह उनकी बेबसी के बारे में सोचती है, उसका दिल कुछ ऐसे सिकुड़ जाता है जैसे कोई गीले कपड़े को निचोड़ रहा हो। क्या क्या नहीं भुगता होगा माँ बाबा ने। जवान बेटी के प्रति पड़ोसियों और सम्बन्धियों के कटाक्ष उन्हें आज भी सुनने पड़ रहे होंगे। यूँ तो एक दिन चैन कि नींद न सोई है निंदिया भी। हर रात सहगल कि आवाज़ में बाबा जब गुनगुनाते 'सो जा राजकुमारी सोजा' तो बेटी कि ओर देख माँ आँखों ही आँखों में मुस्कुरा के कहतीं ' लो ये फ़िर शुरू हो गए'। उनकी रोज की बेकार कि नोकझोंक की आदी निंदिया को विदेश की खामोश रातें काटने को दौड़तीं।

निंदिया को जब भी माँ बाबा की याद सताती है तो वह अपनी ऑंखें भींच कर सोफे के बीच की दरार में घुस कर लेट जाती है, तो कभी माँ को लंबा सा एक पत्र लिखती है जिसमे लन्दन की साडी सुविधाओं का वर्णन होता किंतु उन तकलीफों का नहीं जो वह रोज भुगतती है। कबसे उसने माँ के हाथ की असली घी से चुपडी गर्म रोटी नहीं खाई। 'एक और' 'एक और' कह कर माँ उसे गस्से खिलाती थीं। घुटनों में दबाकर हर इतवार को उसके बालों में जबरदस्त नारियल का तेल मलती थीं। बाबा से छिपा छिपा कर उसे रुपये देती थीं की रूपा के आगे कहीं उसकी हेठी न हो जाए। अब तो रोज वही गुजरती भोजन, सुबह शाम टेप पर चलते साईँ बाबा के भजन और उसका बक्सानुमा कमरा, जिसमें की घर जैसा कुछ नहीं। धीरुबें को वह 'मासी' कह कर बुलाती है, हालाँकि 'माँ सी' तो वह बिल्कुल नहीं हैं। जब भी उसे देखती हैं बस टोकती हैं,'बत्ती जल्दी बंद करया कर छोकरी' या 'इलैक्ट्रिक केतली मोंगी छे' या 'गर्मी मा पण गरम पानियाँ स्नान करे छे, छोकरी' या 'सनिवारे साड़ी नि दुकान मा केम न थी करती दिनिया तू' इत्यादि। वह उसे अधिकतर 'दिनिया' कहकर बुलाती हैं और निंदिया उन्हें कभी नहीं टोकती। उसकी अवस्था के मुताबिक 'दिनिया' नाम बड़ा सटीक बैठता है, बिल्कुल उसकी तरह दीनहीन।

निंदिया पर रूपा के सैकडों रुपये बकाया हैं। ऐसा नहीं की उसने कभी मांग की हो किंतु एक न एक दिन तो लौटने ही हैं। अच्छा सा एक परदा तक तो वह खरीद नहीं पा रही। न जाने किस ज़माने का एक चीकट प्लास्टिकी परदा उसके कमरे की खिड़की पर लटका है, जो इतना लंबा है की उसके बिस्तर तक आ जाता है। उसे काट कर छोटा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मासी कहती हैं की कभी उन्हें घर बदलना पड़ा और नए घर की खिड़की यदि थोडी सी लम्बी हुई तो ये कटा हुआ परदा बेकार हो जाएगा।

पानी में तेल सी तैरती रहती हैं धीरुबेन साऊथ हॉल में। हालाँकि यहाँ भी उनके ढेर से मित्र हैं पर अब उन्हें लगता है की अपने देश यानि वेम्बली वापस चला जाए जहाँ उनकी गुजरती सहेलियाँ और रिश्तेदार रहते हैं। जहाँ कीआवोहवा में ढोकले, खांडवी और चीवडे की खुशबू आती है। चिकन और मटन खाने वाले पंजाबियों से ऊब चुकी हैं वह अब। सत्तर के दशक में वह साऊथ हॉल निवासी एक पञ्जाबी जवान के प्यार के चक्कर में पड़ गयीं थीं। पहले पहल तो दलवीर ने उन्हें बताया ही नहीं की वह विवाहित था और जब पोल खुली तो सालों इसी आशा में निकल गए की वह पत्नी को तलक देकर उनसे विवाह कर लेगा। एक के बाद एक जब दलवीर के अपनी पत्नी से चार बच्चे हो गए तो एक दिन धीरुबेन को एकाएक होश आया की वह उन्हें बेवकूफ बना रहा था पर वह क्या कर सकती थीं। अधिक पढ़ी लिखी तो थीं नहीं। उन्हें सब्जी फल की एक बड़ी दुकान पर आसानी से काम मिल गया और दिन में वह लगातार अट्ठारह उन्नीस घंटे काम करने लगीं। उनके लिए गम भुलाने का यह सबसे असं तरीका था। मेहनत और ईमानदारी के बल पर उन्हें जल्दी ही मेनेजर बना दिया गया। पाँच साल के भीतर ही उन्होंने अपनी जैसी कई अन्य औरतों के साथ मिलकर 'सहारा महिला संगठन' की स्थापना की, जिसका उद्देश्य था सती गयी अथवा दूसरे देशों से धोखे से लाइ गयी औरतों की सहायता करना। निंदिया ने एक बार धीरुबेन से पूंछा था की साउथ हॉल में बसी भारतीय महिलाओं के साथ भी अत्याचार क्यों होते हैं? उन्होंने जवाब दिया था की भारतीय महिलाएं जहाँ भी जायें रहेंगी तो भारतीय ही न। उन्हें बचपन से घुट्टी पिलाई जाती है चुपचाप सहते रहने की। विदेश में तो बेचारी और भी अकेली पड़ जाती हैं क्योंकि यहाँ उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती। ससुराल वाले उन्हें एक नौकरानी से अधिक नहीं समझते। इनके पति स्थानीय औरतों के साथ मज़े करते हैं और ये बेचारी घर और दुकान को संभालती, गालियाँ और घूंसों की शिकार बनती हैं। बच्चों को छोड़कर जाते भी नहीं बनता और लौटें भी तो वहां कौन बैठा है जो इनकी व्यथा सुनेगा।


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