Saturday, February 28, 2009

अपना सा शहर

कभी मंजिलें तो कभी सफ़र ढूँढती नज़र आई,
वो मुझे रोज़ रह गुज़र ढूँढती नज़र आई।

मैं छुपता रहा उससे कई बार और वो,
सरे बज़्म मेरी नज़र ढूँढती नज़र आई।

एक हम जो बेवफाई करके भी भूल गए,
एक वो, हर दुआ का असर ढूँढती नज़र आई।

हम ढूँढ़ते रहे इस शहर में अपना सा कोई,
और वो मुझमें अपना सा शहर ढूँढती नज़र आई।

दुआओं की तरह बदल लिए थे जो चेहरे,
मौत तुम्हे इधर तो मुझे उधर ढूँढती नज़र आई।

धड़कता है दिल तो लहू भी छनता होगा,
सासें फिर वही जिगर ढूँढती नज़र आई ।

रिन्दों को तो सुना है मिल गया था खुदा,
दुनियाँ भी उसे अब इस कदर ढूँढती नज़र आई।

ऐसे भटका कि भूल गया 'अरे तू भी तो थी !
ख़ुशी बेशक मुझीको मगर ढूँढती नज़र आई।

चाँद में ज़िन्दगी के निशां ढूंढते हो मियां ?
और ये, इस जहाँ में गुज़र ढूँढती नज़र आई।

लाखों करोडों के इस 'नीती' शास्त्र में यारों ,
वो 'दर्शन' का सिफर ढूँढती नज़र आई।
(दर्शन= फिलोसोफी)

- दर्पण साह "दर्शन"

Friday, February 27, 2009

ग़ज़ल

हमारी तकनीकी टीम के सदस्य आलोक उपाध्याय "नज़र" की ग़ज़ल का लुत्फ़ उठायें

कभी सहरा सा लगे कभी समन्दर सा लगे
मुझे अच्छा लगे जब भी तू बेखबर सा लगे

मै तेरी हर बात पर ही मोम सा पिघला हूँ
और तू है कि इस बुरे दौर में पत्थर सा लगे

मै बेबाक़ ऐसे ही चुभता हूँ पहले ही समझ ले
इससे पहले कि कोई लफ्ज़ तुझे नश्तर सा लगे

वो मेरे साथ है ये दुनिया समझती है मगर
मुझे तो ये फासला एक लम्बे सफ़र सा लगे

मुश्किलें शायद इतनी पड़ी कि आसां हो गयीं
हर रंज ओ ग़म तेरे चहरे पर बेअसर सा लगे

फितरतों के इस खेल को अब तक न समझा
"नज़र" को जो भी लगे बिलकुल नज़र सा लगे

-आलोक उपाध्याय 'नज़र'

Sunday, February 22, 2009

मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

वो कूकेगी आम्र वृक्ष की शाखाओं पर, मृदु किसलयों की ओट में खुद को छिपलाकर
क्या तनिक उसे ये भान नहीं, एक दिन वो हरित डाल भी सूखेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

मेरे शूलों का स्नेह त्याग, औ' बैठ वहां, छेड़ती विहग राग
मुझे दर्प में ठुकराया पर, एक दिन ये स्वर लहरी भी तो रूखेगी
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

फल न दे पाऊ मैं भले, मगर जलने को तन तो दे सकता हूँ
प्रीत की खातिर मुझे बचाने तब, क्या बार बार वो फूकेगी ?
मैं तो ठहरा वृक्ष बबूल का, मुझ पर कोयल क्यों कूकेगी ?

- जय नारायण त्रिपाठी

Friday, February 20, 2009

नज़्म

अब उस शै का लौटना नामुमकिन है
वो शै जिसे मुहब्बत कहते हैं
वो तो निकल गया
जैसे लहरें
साहिल पे पड़े किसी पत्थर से मिलती हैं
मैं देख रहा हूँ अनजान मंजिल की तरफ
बढ़ते उस अताह तलातुम को
इन मौजों के शोर और जोश में
मैं अपने पुराने वाकये देख रहा हूँ
जरा देख तो सही मेरे अक्स को इस बहते पानी में
क्या वो मैं ही हूँ
जो कुछ लम्हा पहले दिखता था
मौज के वो कतरे जिन पे दिखता था मैं
मेरा अक्स उभरा था
वो तो कब के आगे बढ़ गए
मैं सोच रहा हूँ
मैं वो ही हूँ या नहीं ,गुमान है इसका
मैं वहीँ खडा हूँ , हाँ , इसका यकीन है
वो आगे जाने वाली लहर
शायद पिछले से मेरे
साथ रहने की सिफारिश कर गयी है।

- नरेन्द्र त्रिपाठी

Tuesday, February 17, 2009

उनका तो नाम बिकता है

उनका तो नाम बिकता है बाज़ार में
वो कुछ भी लिख दें छपना ही छपना है
बाज़ार ही कुछ ऐसा है

लोग तो यहाँ तक कहते हैं - आज की
डिमांड है जो उन्होंने लिखा है
किसी फ़िल्म के साथ उनका नाम जुड़ जाए
तो समझो हिट होनी ही होनी है
चाहे तुकबंदी क्यों न हो या
शब्द चीख - चीख कर दम तोड़ रहे हों

सुना था जुगाड़ से सरकार चलती है
मगर यहाँ तो ज़िन्दगी और संघर्ष के
मायने ही बदल रहे हैं
कीमती पत्रिकाओं के चिकने पन्ने
उन्हें छपने की होड़ में लगे हैं, और
परदे के पीछे हिसाब हो रहा है
किसने कितना कमाया ?

मगर आज इन्हीं नाम बिकने वालों के बीच में
एक जोशीली नई कलम
अपने उभरते हस्ताक्षर छोड़ के आयी है
वो कवि नहीं है , जेब खाली है , पढने में संघर्षरत है
आज नामों के बाज़ार में
अपनी भावनाएं छोड़ आया है

और पल पल सोचते हुए कि
छपेगा - नहीं छपेगा
एक नया नाम उजाला पाने के लिए
क़दम -दर - क़दम बढाये जा रहा है .....

- शाहिद "अजनबी"

Monday, February 16, 2009

ग़ज़ल

सुबह उठकर हमने यही हर बार देखा है
हर तरफ़ बस फिक्र -ऐ रोज़गार देखा है

पिछली शब् की बस इतना सी दास्ताँ है
बिस्तर की सिलवटों को बेकरार देखा है

नहीं मानते अब इन काठ के खिलौनों से
मेरे बच्चों ने जब से रिमोट का बाज़ार देखा है

जवानी में ज़माने की रंगत का सबब और
जेहन पर इश्क का एक झूठा खुमार देखा है

जो कभी पोशाक की तरह फबते थे रिश्ते
अब जब गौर से देखा है तार तार देखा है

तुम चाहो तो निगाह-ओ-रुखसार में उलझो
'नज़र' ने उनके दिल के आर पार देखा है

- आलोक उपाध्याय "नज़र"

संदूक

आज फ़िर ,
उस कोने में पड़े,
धूल लगे संदूक को,
हाथों से झाड़ा, तो,
धूल आंखों में चुभ गई।
....संदूक का कोई नाम नहीं होता
..पर इस संदूक में एक खुरचा सा नाम था ।
सफ़ेद पेंट से लिखा।
तुम्हारा था या मेरा,
पढ़ा नही जाता है अब।

खोल के देखा उसे,
ऊपर से ही बेतरतीब पड़ी ...
'ज़िन्दगी'।
मुझे याद है......

...माँ ने,
'उपहार' में दी थी।
पहली बार देखी थी,
तो लगता था,
कितनी छोटी है।
पर आज भी ,जब पहन के देखता
तो, बड़ी ही लगती है,
शायद...

...कभी फिट आ जाए।

नीचे उसके,
तह करके सलीके से रखा हुआ है...

...'बचपन' ।
उसकी जेबों में देखा,
अब भी,
तितलियों के पंख ,

कागज़ के रंग,

कुछ कंचे ,

उलझा हुआ मंझा,

और,
और न जाने क्या क्या....
कपड़े छोटे होते थे बचपन में,
जेब बड़ी....

कितने ज़तन से,
...मेरे पिताजी ने,
मुझे,
ये 'इमानदारी' सी के दी थी ।
बिल्कुल मेरे नाप की ।
बड़े लंबे समय तक पहनी।
और,
कई बार,
लगाये इसमे पायबंद ,
कभी मुफलिसी के, और कभी बेचारगी के,
पर, इसकी सिलाई उधड गई थी, एक दिन।
....जब भूख का खूंटा लगा इसमे।

उसको हटाया,
तो नीचे पड़ी हुई थी 'जवानी'
उसका रंग
...उड़ गया था,
समय के साथ साथ।
'गुलाबी' हुआ करती थी ये....
अब पता नही...

कौनसा नया रंग हो गया है?

बगल में ही पड़ी हुई थी 'आवारगी',
....उसमें से,
अब भी,
शराब की बू आती है।

४-५ सफ़ेद, गोल,
खुशियों की 'गोलियाँ',
डाली तो थीं,संदूक में
पर वो खुशियाँ...

.... उड़ गई शायद।

याद है...
जब तुम्हारे साथ,
मेले में गया था,
एक जोड़ी वफाएं खरीद ली थी।
तुम्हारे ऊपर तो पता नहीं,
पर मुझपे ये अच्छी नही लगती।
और फ़िर...
इनका 'Fashion' भी,
...नहीं रहा।
'Joker' जैसा लगूंगा इसको लपेटकर।

...और ये शायद 'मुस्कान' है।
तुम,
कहती थी न....
जब मैं इसे पहनता हूँ,
तो अच्छा लगता हूँ।
इसमें भी दाग लग गए थे,
दूसरे कपडों के।
हाँ ...
इसको.....

'जमाने' और 'जिम्मेदारियों' के बीच....

रख दिया था ना ।
तब से पेहेनना छोड़ दी।

अरे...
ये रहा 'तुम्हारा प्यार'।
'valentine day' में,
दिया था तुमने।

दो ही महीने चला था,
हर धुलाई में, सिकुड़ जाता था।
हाँ...
खारा पानी ख़राब होता है, इसके लिए,
भाभी ने बताया भी था,
...पर आखें ये न जानती थी।

चलो,
बंद कर देता हूँ,
सोच के...
जैसे ही संदूक रखा, देखा,
यादें तो बाहर ही छूट गई,
बिल्कुल धवल,
Fitting भी बिल्कुल
...लगता था,
आज के लिए ही खरीदी थी,
उस 'वक्त' के बजाज से जैसे,

कुछ लम्हों की कौडियाँ देकर...
चलो,आज इसे ही...

पहन लेता हूँ....

- दर्पण साह

चाँदनी के बीच बदली

हाल पूछा आपने तो, पूछना अच्छा लगा।
बह रही उल्टी हवा से, जूझना अच्छा लगा।।

दुख ही दुख जीवन का सच है, लोग कहते हैं यही।
दुख में भी सुख की झलक को, ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा।।

हैं अधिक तन चूर थककर, खुशबू से तर कुछ बदन।
इत्र से बेहतर पसीना, सूँघना अच्छा लगा।।

रिश्ते टूटेंगे बनेंगे, जिन्दगी की राह में।
साथ अपनों का मिला तो, घूमना अच्छा लगा।।

घर की रौनक जो थी अबतक, घर बसाने को चली।
जाते जाते उसके सर को, चूमना अच्छा लगा।।

कब हमारे, चाँदनी के बीच बदली आ गयी।
कुछ पलों तक चाँद का भी, रूठना अच्छा लगा।।

दे गया संकेत पतझड़, आगमन ऋतुराज का।
तब भ्रमर के संग सुमन को, झूमना अच्छा लगा।।

- श्यामल सुमन

गांव का घर मानव मंदिर

गांव लोगों के रहने का,
केवल एक स्थान नहीं है।
गांव का घर मानव मंदिर,
पत्थर का मकान नहीं है।

सभ्यता के चरम पै जाकर,
भाव सरल मन में जब आएं।
प्रकृति की गोद में खेलें,
पंछी संग बैठे बतियायें।
खुली हवा में करें ठिठोली,
अंदर तक चित्त खुश हो जाए।
गांव छोड कर ऐसे सुख का,
अन्य कोई स्थान नहीं है।
गांव का घर मानव मंदिर
पत्थर का मकान नहीं है

अपवादों को भूलो, पहले,
गांव का विज्ञान उठाओ।
कम साधन में जीने का,
वह पहला सुंदर ज्ञान उठाओ।
सहभागी हो साथ जिंएंगे,
जीवन एक अभिनाय उठाओ।
कल यंत्रों से चूर धरा को,
धो दे वह अरमान नहीं है।
गांव का घर मानव मंदिर,
पत्थर का मकान नहीं है।
- योगेश समदर्शी

Saturday, February 14, 2009

एक शाम और ढली

सीमा गुप्ता की कविता " एक शाम और ढली "

राह पे टकटकी लगाये ..
अपने उदास आंचल मे
सिली हवा के झोकें ,
धुप मे सीके कुछ पल ,
सुरज की मद्धम पडती किरणे,
रंग बदलते नभ की लाली ,
सूनेपन का कोहरा ,
मौन की बदहवासी ,
तृष्णा की व्याकुलता,
अलसाई पडती सांसों से ..
उल्जती खीजती ,
तेरे आहट की उम्मीद ,
समेटे एक शाम और ढली ....

- सीमा गुप्ता

खामोश पलकें

प्रेम दिवस पर ,बेलफास्ट से दीपक चौरसिया "मशाल" की खामोश पलकें की बानगी देखें -

नाम लिख लिख के तेरा मिटा देता हूँ,
खुद का चेहरा ही खुद से छिपा लेता हूँ।
देख ले न कोई तुझको इन आँखों में,
इसलिए सबसे नज़रें बचा लेता हूँ।
बेवफा तुझको कहना मुनासिब नहीं,
कब्र अपनी वफ़ा की सजा लेता हूँ॥
क्या मुक़द्दर है क्या है मेरे हाथ में,
लेके खंज़र लकीरें बना लेता हूँ।
पूछता है कोई जब तेरे बारे में,
होके खामोश पलकें गिरा देता हूँ।

दीपक चौरसिया 'मशाल'