Wednesday, April 29, 2009

ग़ज़ल


अनुभवी शब्दकार श्री प्रसन्नवदन चतुर्वेदी जी की एक ग़ज़ल-

लेकिन इससे पहले नई कलम के सभी पाठकों का तहेदिल से इस ब्लॉग का साथ देने के लिए धन्यवाद्। हमारा आप सभी से एक विनम्र आग्रह है कि कृपया रचनाएँ पढने के बाद ब्लॉग पर अपनी उपस्तिथि अवश्य दर्ज कराएँ क्योंकि ये एक दर्शन भी है और किसी को समझने का मनोविज्ञान भी। यदि कोई कविता को बिना रेटिंग दिए या समीक्षा के दो शब्द लिखे बगैर ब्लॉग से वापस जाता है तो वो बहुत कुछ उन लोगों कि तरह ही हैं जो इस दुनिया में आके भी अपनी छाप छोडे बिना ही यहाँ से रुखसत कर जाते हैं। वैसे भी हम सभी नई कलमों को आप जैसे मालियों के प्रोत्साहन कि नितांत आवश्यकता है और आप जैसे साहित्यानुरागी भी चाहेंगे कि वो सिर्फ़ पाठक नहीं बल्कि सुधी पाठक कहलायें। शायद रेटिंग देने में १ सेकंड और समीक्षा के कुछ शब्द लिखने में ज्यादा समय तो नहीं लगता लेकिन यकीन मानिये आपके कमेन्ट हमारे रचनाकारों के दिलों का कितनी खुशी देते हैं वो शब्दों में बयां करना मुश्किल है.

धन्यवाद्, शुक्रिया..


जा रहा है जिधर बेखबर आदमी ।

वो नहीं मंजिलों की डगर आदमी ।


उसके मन में है हैवान बैठा हुआ,

आ रहा है हमें जो नज़र आदमी ।


नफरतों की हुकूमत बढ़ी इस कदर,

आदमी जल रहा देखकर आदमी ।


दोस्त पर भी भरोसा नहीं रह गया,

आ गया है ये किस मोड़ पर आदमी ।


क्या करेगा ये दौलत मरने के बाद,

मुझको इतना बता सोचकर आदमी ।


राम से तू न डर तू खुदा से न डर,

अपने दिल की अदालत से डर आदमी ।


हर बुराई सुराखें है इस नाव की,

जिन्दगी नाव है नाव पर आदमी ।


आदमी है तो कुछ आदमियत भी रख,

गैर का गम भी महसूस कर आदमी ।


तू समझदार है कहीं और न जा,

कभी ख़ुद ही से ख़ुद बात कर आदमी ।

- प्रसन्नवदन चतुर्वेदी

"निरूतर लौटे संदेश सभी "


सीमा गुप्ता की मर्मस्पर्शी एक और रचना आपको जरूर पसंद आयेगी-

सूनी लगती है ये धरती...
अगन ये नभ बरसाता है

तुमको खोजे कण कण में

ये मन उद्वेलित हो जाता है...
अरमानो के पंख लगा

एक स्पर्श तुम्हारा पाने कों सेंध लगा

रस्मो की दीवारों मे दिल बैरागी हो जाता है.....

हर आस सुलगने लगती है

उम्मीद बोराई जाती है

ये कसक है या दीवानापन

सुध बुध को समझ ना आता है...
पानी की बूंदों से बाँचे

और पवन के रुख पे साजों डाले

निरूतर लौटे वो संदेश सभी

हर प्रयास विफल हो जाता है...

Monday, April 27, 2009

ग़ज़ल



आतंकवादियों के नाम नई कलम के नए उभरते हस्ताक्षर अमित साहू जी का पैगाम एक काबिलेतारीफ ग़ज़ल के रूप में -

कभी किसी की बात का ऐसा असर भी,
हो बदले ख़यालात और खुदा का डर भी हो.

आतंकियों के दिल में जगे प्यार की अलख,
बीवी हो,बच्चे हों,प्यारा-सा घर भी हो.

खुदा के नाम पर लगा रखी है जेहाद,
खुदा की पाकीजगी का जरा असर भी हो.

निहत्थों और बेगुनाहों पे गोलियां चलाना,
हिजडों की करामात है, उन्हें खबर भी हो।

क्या सोचते हो के खुदा तुम्हे जन्नत देगा,
हैवान होकर सोचते हो के बशर भी हो.

करते हो हमेशा ही 'गैर मुसलमाना' हरकत,
फिर सोचते हो के दुआ में असर भी हो.

मैं कहता हूँ, तुम मुस्लिम हो ही नहीं सकते,
बिना धर्म के हो तुम , ये तुमको खबर भी हो.
- अमित अरुण साहू, वर्धा

Sunday, April 26, 2009

एक लघु कथा का अंत


तथाकथित कलमकारों के हाथों नवोदित कवि और लेखकों की साहित्यिक हत्या या उन्हें साहित्यिक आत्महत्या करने पर मजबूर करने की साजिशों पे एक चोट है दीपक 'मशाल' की ये लघुकथा-

<एक लघु कथा का अंत>" डा. विद्या क्या बेमिसाल रचना लिखी है आपने! सच पूछिए तो मैंने आजतक ऐसी संवेदनशील कविता नहीं सुनी", "अरे शुक्ला जी आप सुनेंगे कैसे? ऐसी रचनाएँ तो सालों में, हजारों रचनाओं में से एक निकल के आती है। मेरी तो आँख भर आई" "ये ऐसी वैसी नहीं बल्कि आपको सुभद्रा कुमारी चौहान और महादेवी वर्मा जी की श्रेणी में पहुँचाने वाली कृति है विद्या जी, है की नहीं भटनागर साब?"एक के बाद एक लेखनजगत के मूर्धन्य विद्वानों के मुखारबिंद से निकले ये शब्द जैसे-जैसे डा.विद्या वार्ष्णेय के कानों में पड़ रहे थे वैसे-वैसे उनके ह्रदय की वेदना बढ़ती जा रही थी। लगता था मानो कोई पिघला हुआ शीशा कानों में डाल रहा हो। अपनी तारीफों के बंधते पुलों को पीछे छोड़ उस कवि-गोष्ठी की अध्यक्षा विद्या अतीत के गलियारों में वापस लौटती दो वर्ष पूर्व उसी स्थान पर आयोजित एक अन्य कवि-गोष्ठी में पहुँच जाती है, जब वह सिर्फ विद्या थी बेसिक शिक्षा अधिकारी डॉ.विद्या नहीं. हाँ अलबत्ता एक रसायन विज्ञान की शोधार्थी जरूर थी। शायद इतने ही लोग जमा थे उस गोष्ठी में भी, सब वही चेहरे, वही मौसम, वही माहौल। सभी तथाकथित कवि एक के बाद एक करके अपनी-अपनी नवीनतम स्वरचित कविता, ग़ज़ल, गीत आदि सुना रहे थे। अधिकांश लेखनियाँ शहर के मशहूर डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, इंजीनियर और प्रिंसिपल आदि की थीं। देखने लायक या ये कहें की हँसने लायक बात ये थी की हर कलम की कृति को कविता के अनुरूप न मिलकर रचनाकार के ओहदे के अनुरूप दाद या सराहना मिल रही थी। इक्का दुक्का ऐसे भी थे जो औरों से बेहतर लिखते तो थे लेकिन पदविहीन या सम्मानजनक पेशे से न जुड़े होने की वजह से आयाराम-गयाराम की तरह अनदेखे ही रहते।

गोष्ठी प्रगति पे थी, समीक्षाओं के बीच-बीच में ठहाके सुनाई पड़ते तो कभी बिस्कुट की कुरकुराहट या चाय की चुस्कियों की आवाजें। शायद उम्र में सबसे छोटी होने के कारण विद्या को अपनी बारी आने तक लम्बा इन्तेज़ार करना पड़ा। सबसे आखिर में लेकिन अध्यक्ष महोदय, जो कि एक प्रशासनिक अधिकारी थे, से पहले विद्या को काव्यपाठ का अवसर अहसान कि तरह दिया गया। 'पुरुषप्रधान समाज में एक नारी का काव्यपाठ वो भी एक २२-२३ साल की अबोध लड़की का, इसका हमसे क्या मुकाबला?' कई बुद्धिजीवियों की त्योरियां खामोशी से ये सवाल कर रहीं थीं।

वैसे तो विद्या बचपन से ही कविता, कहानियां, व्यंग्य आदि लिखती आ रही थी लेकिन उसे यही एक दुःख था की कई बार गोष्ठियों में काव्यपाठ करके भी वह उन लोगों के बीच कोई विशेष स्थान नहीं अर्जित कर पाई थी। फिर भी 'बीती को बिसारिये' सोच विद्या ने एक ऐसी कविता पढ़नी प्रारंभ की जिसको सुनकर उसके दोस्तों और सहपाठियों ने उसे पलकों पे बिठा लिया था और उस कविता ने सभी के दिलों और होंठों पे कब्ज़ा कर लिया था। फिर भी देखना बाकी था की उस कृति को विद्वान साहित्यकारों और आलोचकों की प्रशंसा का ठप्पा मिलता है या नहीं। तेजी से धड़कते दिल को काबू में करते हुए, अपने सुमधुर कन्ठ से आधी कविता सुना चुकने के बाद विद्या ने अचानक महसूस किया की 'ये क्या कविता की जान समझी जाने वाली अतिसंवेदनशील पंक्तियों पे भी ना आह, ना वाह और ना ही कोई प्रतिक्रिया!' फिर भी हौसला बुलंद रखते हुए उसने बिना सुर-लय-ताल बिगड़े कविता को समाप्ति तक पहुँचाया। परन्तु तब भी ना ताली, ना तारीफ़, ना सराहना और ना ही सलाह, क्या ऐसी संवेदनाशील रचना भी किसी का ध्यान ना आकृष्ट कर सकी? तभी अध्यक्ष जी ने बोला "अभी सुधार की बहुत आवश्यकता है, प्रयास करती रहो।" मायूस विद्या को लगा की इसबार भी उससे चूक हुई है। अपने विचलित मन को सम्हालते हुए वो अध्यक्ष महोदय की कविता सुनने लगी। एक ऐसी कविता जिसके ना सर का पता ना पैर का, ना भाव का और ना ही अर्थ का, या यूँ कहें की इससे बेहतर तो दर्जा पांच का छात्र लिख ले। लेकिन अचम्भा ये की ऐसी कोई पंक्ति नहीं जिसपे तारीफ ना हुई हो, ऐसा कोई मुख नहीं जिसने तारीफ ना की हो और तो और समाप्त होने पे तालियों की गड़गडाहट थामे ना थमती। साहित्यजगत की उस सच्ची आराधक का आहत मन पूछ बैठा 'क्या यहाँ भी राजनीति? क्या यहाँ भी सरस्वती की हार? ऐसे ही तथाकथित साहित्यिक मठाधीशों के कारण हर रोज ना जाने कितने योग्य उदीयमान रचनाकारों को साहित्यिक आत्महत्या करनी पड़ती होगी और वहीँ विभिन्न पदों को सुशोभित करने वालों की नज़रंदाज़ करने योग्य रचनाएँ भी पुरस्कृत होती हैं।' उस दिन विद्या ने ठान लिया की अब वह भी सम्मानजनक पद हासिल करने के बाद ही उस गोष्ठी में वापस आयेगी।

वापस वर्तमान में लौट चुकी डॉ। विद्या के चेहरे पर ख़ुशी नहीं दुःख था की जिस कविता को दो वर्ष पूर्व ध्यान देने योग्य भी नहीं समझा गया आज वही कविता उसके पद के साथ अतिविशिष्ट हो चुकी है। अंत में सारे घटनाक्रम को सबको स्मरण कराने के बाद ऐसे छद्म साहित्यजगत को दूर से ही प्रणाम कर विद्या ने उसमें पुनः प्रवेश ना करने की घोषणा कर दी। अब उसे रोकता भी कौन, सभी कवि व आलोचकगण तो सच्चाई के आईने में खुद को नंगा पाकर जमीन फटने का इन्तेज़ार कर रहे थे।

दीपक 'मशाल'

Thursday, April 9, 2009

पालिश

"नई कलम" परिवार दिन व दिन सम्रद्ध हो रहा है। आज आपके बीच भारतीय डाक सेवा के अधिकारी और वर्तमान में कानपुर मंडल के वरिष्ठ डाक अधीक्षक रूप में पदस्थ कृष्ण कुमार यादव को पढ़ें -
साहब पालिश करा लो
एकदम चमाचम कर दूँगा
देखता हूँ उसकी आँखों में
वहाँ मासूमियत नहीं, बेबसी है
करा लो न साहब
कुछ खाने को मिल जायेगा
सुबह ही पालिश किया जूता
उसकी तरफ बढ़ा देता हूँ
जूतों पर तेजी से
फिरने लगे हैं उसके हाथ
फिर कंधों से रूमाल उतार
जूतों को चमकाता है
हो गया साहब
उसकी खाली हथेली पर
पाँच का सिक्का रखता हूँ
सलामी ठोक आगे बढ़ जाता है
सामने खड़े ठेले से
कुछ पूड़ियाँ खरीद ली हैं उसने
उन्हीं गंदे हाथों से
खाने के कौर को
मुँह में डाल रहा है
मैं अपलक उसे निहार रहा हूँ।
- कृष्ण कुमार यादव

Wednesday, April 8, 2009

जूता खींच के मारो भइया

शब्दों के माध्यम से सीधी चोट करने में माहिर, "नई कलम" के जाने पहचाने चेहरे को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ । आज के व्यंग्य के जरिये उनके दो अलग - अलग जज्बातों को पढ़ें। आज आपके हवाले पहला जज्बात किया जा रहा है। आने वाले दिनों में दूसरे जज़्बात का आनंद लें।

अब भी अगर न मानें ये तो,
जूता खींच के मारो भइया
बाट लगा दो बदमाशों की,
जूता खींच के मारो भइया।

जियो लाल जरनैल खबरिया,
तुम्हें कभी न लगे नजरिया,
लिखते-लिखते खबरें तुमने,
इनकी खबर भी ले ली भइया।
बुश हों, वेन हों या हों पिल्लू(पी। चिदंबरम)
जूता खींच के मारो भइया।

ये लार गिराते वोटों पर,
और रोलर धरते छाती पर,
घुस आये तालिबानी घर में,
इनकी बदली न परिपाटी पर।
ऐसे नेताओं के सर पे,
जूता खींच के मारो भइया।

सेंक रहे सब अपनी रोटी,
आज वतन की लाश पर,
मारा हिन्दोस्तां को पहले,
फिर रोते अंतिम अरदास पर।
ऐसे नौटंकीबाजों के मुंह पर,
जूता खींच के मारो भइया।

अरबों भर के झोली में वो,
दिखलाते बस थोड़ा-थोड़ा,
जो देश नचाते अंगुली पर हैं,
उनका घर ना गाड़ी-घोड़ा।
ऐसे झूठे मक्कारों को,
जूता खींच के मारो भइया।

आग लगा दो इन चोरों को,
पुनः नया इतिहास बनाओ,
वक़्त विकास का है बन्धु ये,
अपना ना परिहास बनाओ।
उगाओ सूरज क्रान्ति का नव,
जूता खींच के मारो भइया।

- दीपक चौरसिया "मशाल"

सर को झुकाए बैठे है

मुहब्बत है अजीब, आंखो में आँसू सजाये बैठे हैं
देवता नही है, फिर भी हम सपनो का मंदिर सजाये बैठे

किस्मत की बात है, दुनिया से को खुद छुपाये बैठे है
कैसे बयां करें , उन पर हम अपना सब कुछ लुटाये बैठे है

खामोश दीवारों के वीराने को हाले दिल सुनाये बैठे हैं
वो दूर है तो क्या, उनका दिल दिल से लगाये बैठे है

वो लौट कर न आयेगे, फिर भी नज़रे बिछाये बैठे है
उनसे मिलने की ललक में, सब कुछ भुलाये बैठे हैं

आँखों से आँसू इतने गिरे , की समन्दर बनाये बैठे है
वो बेरहम , और उनके सजदे में सर को झुकाये बैठे है

- गार्गी गुप्ता

Saturday, April 4, 2009

अभी जिंदा है

उसकी बोझिल सासों में ,प्यार अभी जिंदा है ।
वो मेरी यादों में सही , मगर अभी ज़िन्दा हैं ॥

बच्चे उसके सो गए , सो गई हैं ख्वाहिशें ।
उस दरवाज़े पर पड़ी , नज़र अभी ज़िन्दा हैं ॥

मैकदे आज बंद हैं , और बंद हैं तीमारदार ।
रिंद अभी ज़िन्दा हैं , बीमार अभी ज़िन्दा हैं॥

दफन हो के भी तड़पता, क्यूँ रहा हूँ मैं यहाँ ?
उस दवा का लगता है, असर अभी ज़िन्दा है ॥

तुम देके भूल गई ,मैंने तो वापिस करना है ।
तुम्हारा दिल , तुम्हारी यादें , उधार अभी ज़िन्दा है ॥

तेरे आने की कभी, आई थी हमको जो ख़बर ।
दूर होती आहटों की, ख़बर अभी ज़िन्दा है ॥

शर्म आई ,बेवफाई , तूने परदा कर लिया ।
तीर ऐ नज़र, होश ऐ असर, जिगर अभी ज़िन्दा है ॥

इश्क हैं तो कायनात , मैं हूँ तो कुछ नहीं।
मैं गया तो क्या गया , हज़ार अभी ज़िन्दा हैं॥

बदल गई हो तुम तो क्या, आँखें नही बदली मगर ।
और इन बेफिक्रिओं की , फिकर अभी ज़िन्दा है ॥

- दर्पण साह "दर्शन"

Friday, April 3, 2009

हमारा परिचय

बहुत दिनों से हमारे पास कई सवाल आ रहे थे की "नई कलम - उभरते हस्ताक्षर" के मंच पर साहित्य प्रकाशित करने की नियम व शर्तें क्या हैं ? आज सम्पादक मंडल उसका जवाब लिख रहा है। आप सुधि पाठकों से रचनाएँ आमंत्रित हैं। और अधिक जानकारी के लिए दायीं तरफ़ "नई कलम उभरते हस्ताक्षर" क्या है ? के नीचे क्लिक करें।
- सम्पादक मंडल

तुम्हारी याद आती है

अभी झंकार उस पल की ह्रदय में गुनगुनाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

नहाई हैं मधुर सी गंध के झरने में वो बातें
तुम्हारे प्यार के दो बोल वो मेरी हैं सोगातें
अभी कोयल सुहानी शाम में वो गीत गाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

हवाओं से रहा सुनता हूँ मन का साज अब तक भी
फिजाओं में घुली है वो मधुर आवाज अब तक भी
वो मुझको पास अपने खींचकर हरदम बुलाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हे ही सोचता रहता हूँ ये सांसें हैं तुमसे ही
अचानक चुभने लगती है मुझे मौसम की खामोशी
ओ' बरबस आंसुओं से मुस्कराहट भीग जाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हे गर भूलना चाहूं तो ख़ुद को भूलना होगा
मगर जीना है तो कुछ इस तरह भी सोचना होगा
कठिन ये जिन्दगी आसान लम्हे भी तो लाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

-अरुण 'अद्भुत'

Thursday, April 2, 2009

महफिले ग़ज़ल का दूसरा पाठ

गज़ल को लेकर कई सारे तकनीकी शब्‍द हैं जिनके बारे में विस्‍तृत बातें तो आने वाले समय में हम करेंगें ही किन्‍तु आज तो हम केवल उनके बारे में प्रारंभिक ज्ञान ही लेंगें । कई लोगों ने पिछले पोस्‍ट पर अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं सभी को धन्‍यवाद । आज का लेख केवल प्रारंभिक ज्ञान है इन सभीका विस्‍तृत और विश्‍लेषणात्‍मक अध्‍ययन...........
आगे पढने के लिए दायीं तरफ़ दर्शाए गए "महफिले ग़ज़ल" पर क्लिक करें।
- सम्पादक

फिर से धक् होती है

यहाँ हर एक मंज़र का विरोधाभास होता है ,
कहीं कपड़े नहीं होते , कोई तन को भी रोता है ।
तेरे माँ - बाप से प्यारे , तुझे तेरे ये बच्चे हैं ,
यही काटेगा कल को तू , कि जो तू आज बोता है
इन्ही गीता के वर्कों में तेरे ख़त को भी पाया है ,
अरे! क्या लेके आया है, अरे! क्या तुझसे खोता है ?
कि फिर से आये हैं बदरा , कि फिर से धक् होती है ,
कि फिर से डाले हैं झूले , कि फिर से खेत जोता है ।
वही आवारगी अपनी ,वही अपना ठिकाना है ,
ये नज़्म गर सुबहू तो शामें इसकी श्रोता है ।
मेरे इस शोक -जलसे में, के देखो तो सभी अपने,
मेरे इस क़त्ल पे 'दर्शन' कोई घड़ियाल रोता है ।
- दर्पण साह