Tuesday, May 18, 2010

जा कहाँ रहे हैं???? देखिये तो किसका जन्मदिन है आज-------------------->>> दीपक 'मशाल'







दोस्तों आज पूरे दो साल हो गए उस लम्हे को जिसमे इस ब्लॉग को पंजीकृत किया गया था. सोच रहा हूँ इस दूसरे जन्मदिन पर आप सबको वो कहानी सुना ही दी जाये जो इस नाम 'नई कलम-उभरते हस्ताक्षर' के नाम के उद्भव से जुड़ी हुई है. कब से दिल में छुपा के रखे हूँ इस बात को और देखिये ना हमेशा कहने का सोचता रहा पर वक़्त के घोड़े की रफ़्तार पीछे छूट गए माजी के किले देखने के लिए मुड़ने नहीं दे रही थी. पर आज बताना जरूरी समझा तो कह दे रहा हूँ..

बात तबकी है जब हम.. हम मतलब मैं और मेरे अज़ीज़ दोस्त जनाब मोहम्मद शाहिद मंसूरी 'अजनबी' उस उम्र में थे जब घर में आलू की सब्जी बना रही मम्मी से सब्जी में पानी डालने से पहले अपने खाने के लिए सूखे आलू निकालने की जिद कर बैठते या करेले, लौकी, कद्दू, टिंडे जैसे नामों से ही चिढ़ा करते थे. हाँ उसी लड़कपन या किशोर उम्र की बात कर रहा हूँ मैं.. मैंने और शाहिद भाई ने तब इंटरमीडिएट पास किया ही था, अब जैसा कि आप जानते ही हैं कि जब कोई छात्र कॉलेज ज्वाइन करता ही है तब अपने आप को दुनिया का बादशाह समझता है.. उसे लगता है कि उसके लिए कोई भी काम नामुमकिन नहीं. वो साहित्य की डोर ही थी जो हम दोनों को जोड़ती थी वर्ना मैं जीव विज्ञान का विद्यार्थी था और शाहिद गणित के.समरलोक, हंस, कथादेश पढ़ते-पढ़ते और टूटी-फूटी कविता, शायरी, कहानी, लेख लिखते हुए हमें अहसास होने लगा था कि हम साहित्यकार नहीं तो उसकी दुम जरूर हो गए हैं. बस एक दिन तैश में दोनों ने अमर उजाला और दैनिक जागरण जैसे अखबारों में ख़ास ख़त और पत्र कॉलम के लिए पत्र लिख के डाल दिए.. थोड़े से अंतराल के बाद हम दोनों के पत्रों को ही ये दोनों अखबार प्रकाशित करने लगे. बस फिर क्या था.. बन गए हम साहित्यकार.

अब जब खुद कुछ बन गए(अपनी नज़र में) तो सोचा कि क्यों ना कोई ऐसा मासिक साहित्यिक अखबार निकला जाए जो स्थापित के साथ-साथ नए रचनाकारों की रचनाओं को प्राथमिकता देकर उन्हें प्रोत्साहित करे.. सोचा कि नाम क्या रखा जाए??? काफी सोच विचार कर तय हुआ कि 'नई कलम-उभरते हस्ताक्षर' नाम मकसद के अनुरूप खूब जाँच रहा है और बस फिर क्या था भाई, बनने लगे बड़े-बड़े हवाई किले और इसमें हमने एक बेचारे कम्प्युटर प्रशिक्षण केंद्र के मालिक जो कि हमारी ही उम्र का था, को भी शामिल कर लिया. लगे उस बेचारे को भी खूब जमके अस्तित्वविहीन कैनवास पर आभासी प्रोजेक्टर से सुनहरे भविष्य की फिल्म दिखाने. अखबार के इस तीसरे शेयर होल्डर का नाम आशुतोष अग्रवाल था और सच में हम हमेशा इस सहयोग के लिए उसके आभारी रहेंगे.
तो प्रथम संस्करण में २०० समाचार पत्र निकालने का फैसला लिया गया. जिले भर से युवा और वरिष्ठ साहित्यकारों की रचनाएं ली गयीं.. खुद ही एडिटिंग भी की और इस तरह एक ८ पेज का साहित्यिक अखबार बनकर, छपकर तैयार भी हो गया. बात जब उसे बाज़ार में लाने की आयी तो सबसे पहले कुछ लोगों को मुफ्त में दिए गए और बहुत थोड़े ने शायद खरीदा भी. पर अगर किसी से उसका वार्षिक या आजीवन सदस्य बनने को कहते तो वो पहले हमें ऊपर से नीचे तक देखता और फिर मुस्कुरा कर सिर हिला देता. अब ये बात हमें भले ना समझ में आ रही हो पर वो समझ रहे थे कि कल को ये बच्चे अपना-अपना कैरियर बनाने में लग जायेंगे और हमारे पैसे तो गए.. फिर भी रो धो कर किसी तरह हमने २ अंक तक अखबार को खींचा पर उसके बाद दम फूलने लगा. हमारे तो ५-५०० रुपये लगे थे पर वो बेचारा कम्प्यूटर्स एंड प्रिंटर्स वाला तो लुट-पिट गया ना. सोच रहा था कि किस मनहूस घड़ी में इन मंजे हुए साहित्यकारों पर भरोसा कर लिया.. :) अब होना क्या था योजना खटाई में....... अजी खटाई में नहीं बल्कि.. खटाई के मर्तबान में पड़ के सील हो गई.
इसके बाद शाहिद बाबू अपनी पढ़ाई में लग गए और मैं अपनी में.. करते करते शाहिद बन गया इंजीनियर और मैं पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली के एक संस्थान में रिसर्च प्रोजेक्ट से जुड़ गया. बात फिर से चालू हुई तब जब मैं रिसर्च को आगे बढ़ाते हुए यहाँ बेलफास्ट, उत्तरी आयरलैंड(यूं.के.) आ पहुंचा.. तब तक शाहिद भाई ने भी कहीं जॉब ज्वाइन कर ली थी. जैसे ही कुछ स्वावलंबी हुए नहीं के साहित्य का कीड़ा फिर शीतनिद्रा(हाईबरनेशन) से निकल कर बाहर आ गया. किसी तरह मैंने अन्य दोस्तों से शाहिद का नंबर लिया और बात की तो साहित्य ने मुझे ब्लॉग के बारे में बताया... तो मैंने पूछा ''भाई ये क्या 'बला' है?'' और जब मैंने अपनी रचनाओं को दुनिया के सामने लाने का यह मंच देखा तो बस पूछिए ही मत दिल कितना ऊपर उछल कर छत से जा टकराया (तब से लेकर आज तक सर पर ब्लॉग नाम का गूमड़ पड़ा हुआ है). शाहिद जे ठहरे इंजीनियर बताया कि ''भाई हमारा 'नई क़लम-उभरते हस्ताक्षर' अबकी ब्लॉग के रूप में फिर से जिन्दा हो गया है''.. जिस दिन इस ब्लॉग की नींव राखी गई वो आज ही का शुभ दिन था यानी १८ मई २००८, बस तबसे लेकर अब तलक कई अच्छा लिखने वाली कलमों, साहित्य के उभरते हस्ताक्षरों को इस मंच पर आमंत्रित किया.. सभी का भरपूर प्यार मिला(और आगे भी मिलता रहेगा). बीच में हुआ ये कि शाहिद जी अपने काम में कुछ ज्यादा ही मशगूल हो गए. 'नई कलम-उभरते हस्ताक्षर' के अलावा मैंने भी एक स्वतंत्र ब्लॉग रूपी पौधारोपण किया जिसे आप लोग निरंतर अपने स्नेह और आशीर्वाद से सींच ही रहे हैं.
अभी तक जिनकी रचनाएं इस मंच पर प्रकाशित हुईं उन साथियों के शुभ नाम हैं-
सुनील उमर
  • शिखा वर्मा "परी"
  • नीरा राजपाल
  • शगुफ्ता परवीन अंसारी
  • दिव्या माथुर
  • जतिंदर "परवाज़"
  • महेश चन्द्र गुप्त "खलिश"
  • तमन्ना
  • बीती ख़ुशी
  • आकांक्षा यादव
  • अब्दुल जलील
  • जूनून इलाहाबादी
  • कृष्ण कुमार यादव
  • गार्गी गुप्ता
  • प्रसन्नवदन चतुर्वेदी
  • अमित साहू
  • डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
  • प्रिया- प्रिया
  • अरुण "अदभुत"
  • जय नारायण त्रिपाठी
  • दर्पण साह
  • श्यामल सुमन
  • योगेश समदर्शी
  • कौशल पाण्डेय
  • नरेन्द्र त्रिपाठी
  • सीमा गुप्ता
  • पवन उपाध्याय "राज़"
  • रुबीना फातिमा "रोजी"
  • दीपक चौरसिया "मशाल"
  • आलोक उपाध्याय "नज़र"
  • शाहिद "अजनबी"
जल्द ही ये ब्लॉग एक वेबसाईट के रूप में आपको हिन्दी की सेवा में तत्पर करता दिखेगा पर उसके लिए आपके प्यार और सहयोग की नितांत आवश्यकता है. इसी श्रंखला के तहत हिन्दी ब्लॉग की दुनिया के कुछ सक्षम हस्ताक्षरों को एक साथ, एक पुस्तक के रूप में सबके सामने लाने का प्रयास चल रहा है, जो ऊपरवाले की कृपा से जल्दी ही आपके हाथों में होगा.
आज इस खुशी के दिन मैं आप सबसे एक बार पुनः अपने इस चहेते ब्लॉग को सक्रिय सहयोग देने का अनुरोध करता हूँ.

आपके
शाहिद 'अजनबी' एवं दीपक 'मशाल'
(आपको जानकर खुशी होगी कि हिन्दी ब्लोगिंग के जानेमाने पॉडकास्टर श्री गिरीश बिल्लौरे जी ने अपने प्रिय साथियों के अनुरोध पर ब्लोगिंग में पुनः वापस आने के लिए हाँ कर दी है और शीघ्र ही वो पुनः सक्रिय दिखेंगे.. उनका तहेदिल से स्वागत किया जाए)

Saturday, May 8, 2010

वही मौसम - वही मंज़र


कभी इकरार चुटकी में, कभी इंकार चुटकी में,
मरासिम का किया कुछ इस तरह इज़हार चुटकी में।

वही मौसम, वही मंज़र,वही मैकश, वही साकी,
हुई है आज फिर मेरी, कसम बेकार चुटकी मे।

कभी वो प्याज़ के आंसू, कहीं पे अल्पमत होना,
बदलती है हमारे देश की सरकार चुटकी मे।

मेरा ये देश 'वन्दे मातरम्' के गीत से जागा,
उठा गांडीव झटके से, उठी तलवार चुटकी में।

लिखा है बारसा मैंने, हमेशा हाय बेजा ही ,
मिला जो साथ तेरा गए अशआर चुटकी में।

बहुत सी लज्ज़तें ऐसी, भुलाई जो नहीं जाती,
उतर जाती, खुमारे मय, खुमारे या चुटकी में।

तेरी इस रुह की ये आग, सदियों नहीं बुझती,
लगी है जुस्तज़ू--लौ मगर, हर ार चुटकी में।

मुझे जो आरज़ू है मौत की, ता-ज़िन्दगी सी है,
मगर ये मौत देती है मुझे दीदार चुटकी में।

कहाँ है, कोई भी इस शहर में, अंजान सी बातें ?
बिके हैं रोज़ ही सारे, यहाँ अखबार चुटकी मे।

हवाएं बादबानी के रुखों को मोड़ देती हैं,
हुये हैं तैरकर दरिया, हमेशा पार चुटकी में।

लगे है सरहदें 'दर्शन', घरों के बीच की दूरी,
मिला तू हाथ हाथों से, गिरा दीवार चुटकी मे।
-दर्पण साह 'दर्शन '


Friday, May 7, 2010

तुम आने वाले हों शायद


बहुत दिनों से आलोक उपाध्याय "नज़र" साहब को पढने का मौका नहीं मिल पा रहा था, आज इक नई रचना के साथ हमारे बीच में आइये लुत्फ़ लें-

कुछ उजला कुछ धुंधला सा है
दिल का मौसम बदला सा है
जब उलझे तब तब समझे
जीवन एक मसला सा है
तेरी मेरी हालत एक तरह
लोग कहें तू पगला सा है
नम आँखों की लाख वजह
दिल का दुःख पिघला सा है

"गए लोग कुछ ले आयेंगे"
देखो तो दिल बहला सा है
दिलोदिमाग़ की जंग है ये
कुछ न कुछ घपला सा है
तुम आने वाले हो शायद
देखो रस्ता उजला सा है

- आलोक उपाध्याय "नज़र", इलाहबाद
( लेखक सॉफ्टवेर इंजीनियर हैं )