Tuesday, March 4, 2014

पानियों पे छींटे उडाती हुई लड़की...-

प्रकृति के नियमों के साथ जितना खिलवाड़ गुलज़ार साहब ने किया है उतना शायद ही किसी और ने किया होगा. उन्होंने अपने गीतों के माध्यम से कुदरत को बेतहाशा तोडा मरोड़ा है. उनके गीतों में कुछ भी नियम कायदे से नहीं चलता. कभी चाँद जमीन पर भटक रहा होता है तो कभी सितारे क्यारियों में उगे हुए होते है. कभी समंदर सहराओं की ख़ाक छानता है तो कभी हवा चिराग को रौशन रखे होती है. वो अल्फाजों को सूंघ सकते है, आंसुओं को सुन सकते है और खुशबुओं को देख सकते है. कुल मिलाकर वो कुछ भी कर सकते है. और सच्चे कलाकार की इससे बढ़कर और क्या पहचान होगी कि कुदरत का निजाम भी उसके अल्फाजों की मर्ज़ी से चले.
एक बेइंतहा खूबसूरत गीत में उन्होंने लिखा की,

‘हमने देखी है उन आँखों की महकती खुशबू, हाथ से छू के इसे रिश्ते का इल्जाम ना दो.’

और उसी रोज़ से हर एक बशर आँखों की खुशबू देखने का दावा करने लगा. और उस खुशबू को हाथ से छूने की गुस्ताखी करने से परहेज भी करने लगा. एक और गीत में उन्होंने लिखा कि,

‘आ धूप मलूं मैं तेरे हाथों में,
आ सजदा करूँगा मैं तेरे हाथो में.’

बताओ तो ? हाथों में धूप मलने का आखिर क्या मतलब हुआ ? आखिर ये बंदा एक्झैक्ट्ली करना क्या चाहता है ? कभी आया है मन में सवाल ? नहीं ही आया होगा. क्यूँ कि हम जानते है, अगर गुलजार साहब कह रहे है तो ये सब किया ही जा सकता होगा.

जब मैं छोटी बच्ची थी तब टीवी पर एक फिल्म का ट्रेलर आया करता था. हु तू तू फिल्म का. इसका एक गाना बार बार दिखाया जाता था. गाना बेहद उम्दा था. जिसके बोल कुछ इस तरह थे,

‘छई छप्पा छई, छप्पाक छई, पानियों पे छींटे उडाती हुई लड़की...
अरे देखी किसी ने, आती हुई लहरों पे जाती हुई लड़की.’

उस कच्ची उम्र में इस गीत को सुनकर मेरी पक्की धारणा हो चुकी थी कि ये कोई भूत-प्रेत की फिल्म है. और ये लहरों पे आने-जाने वाली लड़की जरुर जरुर कोई चुड़ैल होगी. वो तो काफी सालों बाद पता चला कि फिल्म एक पोलिटिकल थ्रिलर थी और लहरों पे लड़की चलाने का कारनामा गुलजार साहब का था.

जब वो कहते है कि, ‘कतरा कतरा मिलती है, कतरा कतरा पीने दो, ज़िन्दगी है’, तो इस फानी दुनिया का हर एक बाशिंदा ज़िन्दगी की प्यास को लबों पर सजाये हुए उनके हमकदम हो लेता है. बगैर कोई सवाल जवाब किये. जब उनके किसी गीत की विरहिणी नायिका कहती है कि, ‘और मेरे इक ख़त में लिपटी रात पड़ी है, वो रात बुझा दो, मेरा वो सामान लौटा दो’, तो उसके दर्द की शिद्दत से हर एक सुनने वाला अच्छी तरह वाकिफ हो जाता है. जिसने अपनी रातें ही ख़त में लपेट कर भेज दी वो कितनी तनहा होगी इसका अंदाज़ा एक लाइन में ही लग जाता है.

लिबास फिल्म के गीत ‘खामोश सा अफसाना’ में एक जगह वो लिखते है कि,

‘कितने साहिल ढूंढें, कोई ना सामने आया,
जब मझधार में डूबे, साहिल थामने आया.’

तब डगमगाती कश्तियों के मुसाफिरों की भी हिम्मत बंधने लगती है कि कभी तो, कोई तो आकर थामेगा ही. भले ही साहिल बीच मझधार आये. इसी फिल्म के एक अन्य गीत ‘सिली हवा छू गई’ में उनकी नायिका कहती है,
‘तुम से मिली जो ज़िन्दगी, हम ने अभी बोई नहीं’, जैसे ज़िन्दगी ना हो उम्मीदों का कोई बीज हो जिसे बो देने भर से ही एक नई ज़िन्दगी का पौधा फलने-फूलने लगेगा. इसी उम्मीद की तो जरुरत होती है हम सब को. और गुलजार के गीतों में ये बहुतायत में पाई जाती है. यूं जैसे उम्मीदों का कोई पेड़ लगा हुआ हो. जब भी नाउम्मीदी दस्तक देने लगे, गए और इस पेड़ की शाख से कोई उम्मीद तोड़ ली.

जब उन्होंने समझाया ‘दिल तो बच्चा है जी’ तो पूरा मुल्क इसे ब्रह्मवाक्य मानकर इस पर अमल करने लगा. जब उन्होंने बोला कि, ‘दोनों तरफ से बजती है ये, आय हाय ज़िन्दगी क्या ढोलक है’, तो सब को गुमान हुआ की ज़िन्दगी कितनी मुश्किलातों से भरी हुई है.

साथिया फिल्म के एक गाने में जब उनका नायक अपनी महबूबा की हंसी को ‘गीली हंसी’ बताता है और उस हंसी को ‘पी जाने का’ दावा करता है तो वो नजारा हमारे खयालों में एक सूरत सी अख्तियार कर लेता है. इसी फिल्म के एक गीत ‘ऐ उडी उडी’ में हीरो अपने प्रैक्टिकल होने का क्या खूब सबूत देता है. वो कहता है,
‘लड़ लड़ के जीने को ये लम्हे थोड़े है
मर मर के सीने में ये शीशे जोड़े है
तुम कह दो सब ला दूं, बस इतना सोचो तुम,
अम्बर पे पहले ही सितारे थोड़े हैं.’
इसी फिल्म के एक और बेहद मधुर गीत ‘चुपके से’ में नायिका कहती है,
‘दिन भी ना डूबे, रात ना आये, शाम कभी ना ढले,
शाम ढले तो सुबह ना आये, रात ही रात चले.’
ये पढ़कर भी ऐसी कन्फ्यूज बंदी पर हमें गुस्सा आने की बजाय प्यार ही आता है.

अपने गीतों के जरिये सम्पूरण सिंह कालरा उर्फ़ गुलजार साहब क्या क्या कर सकते है या करवा सकते है इसकी एक झलक देख लीजिये.

--- वो आपसे चिंगारी का टुकड़ा जलाने को या सहरा की प्यास बुझाने को कह सकते है ( बहने दे, मुझे बहने दे – रावण )
--- वो आपको हुक्म दे सकते है कि जाओ रौशनी से नूर के धागे तोड़ लाओ. ( बोल ना हलके हलके – झूम बराबर झूम )
--- वो आपको समझा सकते है कि बारिश का भी बोसा (चुम्बन ) लिया जा सकता है. ( बरसो रे मेघा – गुरु )
--- वो आपको दिल निचोड़ने के लिए, रात की मटकी तोड़ने के लिए उकसा सकते है. ( आजा आजा दिल निचोड़े – कमीने )
--- वो आपको बहका सकते है कि सांस में सांस मिलने पर ही सांस आती है. ( सांस – जब तक है जान )
--- वो आपको काफिर घोषित करवाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ेंगे जब आप उनका लिखा ये गायेंगे, मेरा नगमा वही, मेरा कलमा वही. ( चल छैंया छैंया – दिल से )
--- वो ‘तू मेरे रूबरू है, मेरी आँखों की इबादत है’ लिखकर आपकी मदद भी कर सकते है. जब भी आपका महबूब/महबूबा आपसे खफा हो जाए, ये गीत चिपका दीजिये. नतीजा यकीनन सुखद निकलेगा.

गुलजार साहब के गीत सिर्फ गीत ना होकर जीने का फलसफा संजोये हुए नगीने है. उनका हम जैसी भटकती, तड़पती रूहों पर बेशुमार एहसान है. जिसको कभी भी चुकता नहीं किया जा सकता. खुदा आपकी उम्र दराज करे गुलजार साहब. ताकि आप यूं ही हमारी जिंदगियों को अपने अल्फाजों की खुशबू से महकाते रहे. आमीन !

जब भी गहरे अवसाद में घिर जाती हूँ तो गुलजार साहब के इस गीत से ताकत हासिल करने की कोशिश करती रहती हूँ,

पहले से लिखा कुछ भी नहीं,
रोज़ नया कुछ लिखती है तू
जो भी लिखा है, दिल से जिया है
ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे
हाँ ये लम्हा फिलहाल जी लेने दे....

आप भी जी रहे है न ये फिलहाल वाला लम्हा ???


- ज़ारा अकरम खान

4 comments:


  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन लक्ष्मी के साहस और जज़्बे को नमन - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. इस जर्रानवाजी के लिए बेहद शुक्रिया.. नई कलम... और ब्लॉग बुलेटिन दोनों का दिल से धन्यवाद.

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  3. वाकई..गुलजार तो गुलजार हैं.....बहुत अच्‍छा लगा पढ़ के

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