Saturday, January 25, 2014

मुखौटा- ज़ारा अकरम खान

~~~~~~~~~मुखौटा~~~~~~~~

उसे पहली बार मेरा पांच साल का भांजा आमिर लाया था । तब, जब वो लोग कलियर जाते हुए हमारे यहाँ रुके थे । लिजलिजी रबड़ से बना भयंकर सा मुखौटा । सुर्ख दहकती हुई आँखें, चेहरे पर अजीब से रंगों का मिश्रण और डरावनी मुद्रा । पहली बार जब आमिर उसे पहने हुए अचानक सामने कूदा था तो मेरी चीख निकल गई थी । दिल उछल कर हलक में आ गया था । कितनी ही देर लगी थी अपनी बेतरतीब साँसों पर काबू पाने में । अगर वो हमारे यहाँ मेहमान नहीं होता तो एक मारती खींचके । लेकिन मेहमान नवाजी का और बच्चे की उम्र का खयाल कर के चुप लगा गई थी । मुझे याद है आमिर कितना खुल कर हंसा था मेरे डरने से । उसकी निगाह में एक बच्चे द्वारा किसी बड़े को डराना बहुत बड़ा काम था । बहुत खुश हुआ था वो अपनी हरकत पर । जो दो दिन वो लोग हमारे यहाँ रुके, उसने कई बार मुझे वो मुखौटा पहन कर डराया । पहली बार के बाद मेरा डर तो निकल गया था लेकिन मैं आमिर की ख़ुशी के लिए डरने का नाटक करती रही । उसे झूठ मूठ का डांटती भी रही । वो बहुत खुश होता था । फिर वो लोग चले गए और मुखौटा रह गया । पता नहीं आमिर उसे ले जाना भूल गया था या उसने उसे जानबूझकर मेरे लिए छोड़ा था । लेकिन उनके जाने के बाद मुझे वो बैठक में मिला । मैंने उसे उठाकर अपने कमरे में अपनी मेज़ की दराज़ में रख दिया । दो दिनों में उसकी आदत तो हो चुकी थी लेकिन रात में उसकी तरफ देखने से अब भी हल्का सा डर लगता ही था ।

दिन बीतते गए और मैं मुखौटे को भूलती गई । वैसे भी याद रखने के लिए बहुत सी चीजें थी ज़िन्दगी में । जैसे की तुम । हाँ तुम, अर्श अहमद खान । तुम्हें याद करना, तुम्हें सोचना एक अलग ही दुनिया में ले जाता था मुझे । तुम्हारे होते हुए मुझे वक्त हमेशा कम पड़ा करता था । उस अनजानी सी कशिश को कभी लफ़्ज़ों में पिरोने की कोशिश तो नही की मैंने लेकिन बहुत कुछ ऐसा ज़हन में उमड़ता रहता था जिसे बाहर निकालने की कोशिश में मैं अधमरी हुई जाती थी । मेरी बातें सुनकर तुम पूछा करते थे कि तुम ऐसी किताबी बातें कैसे कर लेती हो ? और मैं हमेशा मुस्कुराके यही कहती थी के बहुत किताबें पढ़ती जो हूँ । हाँ अर्श अहमद खान मैं बहुत किताबें पढ़ती थी, अब भी पढ़ती हूँ । तुम्हारे बाद भी । आखिर उन्ही से तो सीखा है मैंने लहजे पहचानना । बातों के पीछे छिपी हुई बात जानना । अगर ऐसा ना होता तो उस दिन तुम्हारी बातों को अन्दर तक पढने में कामयाब हो पाती भला ?

मुझे आज भी लम्हा लम्हा याद है वो दिन जब तुम आखिरी बार हमारे घर आये थे । तुम्हे आये हुए बहुत दिन बीत चुके थे । इतने ज्यादा के अब तुम्हारे आने की उम्मीद भी करनी छोड़ दी थी मैंने । और ऐसे में अचानक तुम आये । तुम्हें देखकर पता नहीं क्यूँ उस एक बार दिल की धड़कनें काबू में रही । जब कि हमेशा वो एकाध बीट मिस कर दिया करती थी । पता नहीं क्यूँ वो बेचैनी,वो बेताबी नदारद थी । शायद पिछले दिनों की तुम्हारी बेरुखी का असर हो । तुम्हारे आते ही मैं हमेशा की तरह किचन की तरफ मुड़ी और हमेशा की तरह अम्मी ने रोक दिया कि मैं देखती हूँ, तुम अर्श से बातें करो । क्या वो कुछ जानती थी ? ये माएं भी ना बड़ी अजीब शय होती है । अपनी औलादों के बारे में इन्हें सब पता होता है । बिना कुछ बताये भी । हमेशा की तरह तुम और मैं आमने सामने बैठे थे । तुम उस सोफे पर, मैं इधरवाले पर । बीच में लम्बी सी शीशे की मेज । तुम जब भी आते बैठने का यही सिस्टम जारी रहता । उस दिन बहुत देर तक एक बेचैन खामोशी हवा में तैरती रही । फिर मैंने ही बात शुरू की थी ।

“बहुत दिनों बाद आये आप । क्या बात है, आप बेज़ार है मुझसे ?”

“नहीं । नहीं तो…” – तुमने हडबडाकर कहा था – “बेज़ार क्यूँ होने लगा ? बस मसरूफियत ही इतनी बढ़ गई है के वक्त ही नहीं निकल पाता । तुम तो जानती ही हो ।”

हाँ, मैं तो जानती ही थी । वो हर तीसरे दिन तुम्हारा मेरे घर बहाने बहाने से आ धमकना, वो समीरा बाज़ी के फ़ोन पर बार बार फ़ोन करके बात करवाने की गुजारिशें करना, वो ‘तुम तो मुझे वक्त ही नहीं देती हो’ वाली शिकायतें करना । सब जानती थी मैं । ये भी की आजकल तुम्हारी तरफ से बनाई गई इस दूरी की वजह क्या है । एक लम्हें को दिल चाहा ये सब कह दूं लेकिन फिर संभाल ही लिया खुद को ।

“हाँ जानती हूँ । आपकी जॉब का क्या हुआ ?”

“हो जाएगा । एक जगह बात चल रही है । इस बार पक्का है । शायद देहरादून जाना पड़े ।”

“ओह, तो और क्या सोचा आगे आपने?” – मैंने पूछा ।

“किस बारे में ?”

किस बारे में ? हाँ ये भी तो ईक सवाल है । किस बारे में सोचते तुम । अपनी नौकरी के बारे में, अपनी मसरूफियत के बारे में या…..या मेरे बारे में। मेरे बारे में क्यूँ नहीं सोचते तुम ? होठों पर रेंग रहे इस सवाल को बाहर फेंकना इतना तकलीफदेह क्यूँ हो गया था ? अब भी सोचती हूँ तो जवाब नहीं मिलता । पता नहीं बेहिसाब बोलने वाली मैं उस लम्हे इतनी चुप क्यूँ हो गई थी । बहुत देर तक एक चीखती हुई खामोशी छाई रही माहौल में । फिर तुमने ही उसे तोडा ।

“घरवाले शादी पर जोर दे रहे है।” – तुमने थैली से खरगोश बाहर निकाल ही लिया था ।

“हूँ ।” – मेरी शांत प्रतिक्रिया से तुमसे ज्यादा मुझे हैरानी हुई थी ।

तुम गौर से पढना चाह रहे थे मेरे चेहरे पर दर्द की लकीरें । और मैं इस कोशिश में थी कि दिल के ज़ज्बात चेहरे पर ना झलकने पाए । जीत शायद मेरी ही हुई थी । तभी तो तुमने झुंझलाकर कहा था,

“कुछ कहोगी नहीं ?”

“क्या कहूँ ? मेरे कहने लायक कुछ बचा है ?” – मेरा सीधा सवाल शायद तुम्हे कुछ असहज कर गया था । मुझे खुद पर ही गुस्सा आने लगा । तुम्हें आजमाइश में डालना मुझे कभी भी अच्छा नहीं लगा ।

“मैं तुम्हारा गुनाहगार हूँ शाद ।” – तुम्हारी आवाज़ शायद तुम्हें भी अजनबी लगी होगी ।

“ऐसी कोई बात नहीं है । लेकिन अगर बात चल ही निकली है तो बताइये की क्यूँकर आपका और मेरा साथ नहीं बन सकता ?” –थोड़ी सी कोशिश अपने लिए भी कर के देखना मेरा फ़र्ज़ था । भले ही नाकामयाबी की गारंटी हो ।

“पापा ने कमिट किया हुआ है उनके दोस्त से । वो कभी नहीं मानेंगे । मेरे हाथ में कुछ नहीं है ।” – वही स्टैण्डर्ड जवाब ।

जुबां पे आया हुआ सवाल कि ‘प्यार क्या पापा से पूछकर किया था’ कितनी मुश्किलों से हलक के अन्दर धकेला था इसका तुम्हें अहसास भी नहीं हुआ था । कुछ पल के लिए तो दिमाग सुन्न हो गया था और ज़हन समीरा बाज़ी की बातों की तरफ चला गया था ।

‘तुम समझती क्यूँ नहीं शाद, अर्श तुमसे शादी कभी नहीं करेगा । तुमसे शादी कर के उसे सिर्फ बीवी हासिल होगी । लेकिन जहाँ उसके घरवाले उसकी शादी करा रहे हैं वहां उसे बीवी के साथ साथ एक अच्छी नौकरी और सब ठीक रहा तो राजनीति में करियर का सुनहरा मौका मिलेगा । उसके होने वाले ससुर एक बड़े नेता के करीबी है और उनका अपने दामाद को राजनीति में उतारने का इरादा है ।इस बार के पंचायती चुनाव में हो सकता है अर्श को मौका मिले । ये एक बेहद लुभावना ऑफर है जिसे अर्श कभी नहीं छोड़ेगा । तुम चाहे मानो या ना मानो लेकिन अर्श कितना सेल्फिश है ये मैं जानती हूँ । वो तुम्हें छोड़ देगा लेकिन ये मौका नहीं जाने देगा।’ समीरा बाज़ी की आवाज़ कानों में गूँज रही थी । हालांकि उस आवाज़ पर मैंने ना तब यकीन किया था और ना ही अब करना चाहती थी । मगर क्या तुम इसे सच साबित करने आये थे अर्श ? समीरा बाज़ी तुम्हारी भाभी थी । तुम्हारे घर में ही रहती थी । तुम्हारे घरकी सब बातें उन्हें पता होना लाज़मी था । झूठ बोलने वाली या बेवजह किसी का बुरा चाहने वाली भी वो नहीं थी । ख़ास तौर पर मुझ से तो उन्हें बहुत दिली लगाव था । अब भी है । वो अगर कुछ कहती थी तो उनकी बातों को मुझे संजीदगी से लेना ही चाहिए था । लेकिन अर्श, ये जो उम्मीद है न, बड़ी ही ज़ालिम शय है । ब्लड कैंसर के आखिरी स्टेज पर पहुँच चुके शख्स को भी ज़िन्दगी से चिपके रहने पर मजबूर करती है ये उम्मीद । मुझे भी क्या इसी उम्मीद की उम्मीद ने नाउम्मीद होने से रोका था ? ओह, फिर किताबी बात कर दी मैंने । यूं बहक जाना आम बात हो गई है अब । फर्क सिर्फ इतना है की अब कोई टोकने वाला नहीं रहा । अब भी इस सवाल से परेशान हूँ कि उस दिन क्या तुम मेरी उम्मीद का मुर्दा गहरा दफ्न करने आये थे ?

“कहाँ खो गई ?” – तुम्हारे सवाल ने मुझे वापस उस कमरें में लौट आने पर मजबूर कर दिया था ।

“कहीं नहीं ।” – मेरा मुख़्तसर सा जवाब ।

“तुम मुझे माफ़ नहीं करोगी ना कभी ?” –  तुमने आवाज़ में भरसक शर्मिंदगी घोलने की कोशिश करते हुए पूछा था ।

और तुम ये कभी नहीं जान पाओगे की तुम्हारे इस सवाल ने मेरे अन्दर कितने विस्फोट कर दिए थे । ये सवाल सिर्फ सवाल नहीं था । ऐलान था इस बात का कि तुमने अपनी मंजिल चुन ली थी । तुमने अपना सफ़र शुरू भी कर दिया था । और तुम मुझे शायद सिर्फ इत्तला देने आये थे । ये जताने आये थे कि तुमने जो राह चुनी है उसपर तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी के खिलाफ धकेला गया है । लेकिन क्या ये सच था अर्श ? क्या तुम चाहते तो हमारा साथ मुमकिन नहीं होता ? समीरा बाज़ी हमारे खानदान से थी और तुम्हारे घर में खुश थी । दोनों खानदान एक दूसरे से अच्छी तरह वाकिफ थे । हमारे यहाँ से एक और लड़की ले जाना तुम्हारे घरवालों को बिलकुल भी नागवार नहीं गुजरता । अगर तुम जिक्र चलाते तो तुम्हारे पापा यकीनन मान जाते । अहमद अंकल एक नेक और रहमदिल शख्स रहे हैं । उन्हें अपनी ही चलाते हुए मैंने कभी नहीं देखा । समीरा बाजी कहते नहीं थकती कि उन्होंने उन्हें कभी बाप की कमी महसूस नहीं होने दी । अगर तुम अपनी पसंद जाहिर करते तो थोड़ी सी कोशिशों से ये मुमकिन हो जाता। तो क्या ये तुम थे अर्श जिसने अपनी महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए उनकी किसी फर्जी कमिटमेंट का सहारा लिया था ? क्या ये तुम थे जिसे एक उज्ज्वल भविष्य के लिए मेरी कुर्बानी सस्ता सौदा लगी थी ? ये और इस जैसे न जाने कितने सवाल ज़हन को कुरेद रहे थे । लेकिन तुम्हें शर्मिंदा करना मुझे कभी अच्छा नहीं लगा ।

“बोलो न, क्या कभी मुझे माफ़ नहीं कर सकोगी ?” – तुम व्याकुलता की प्रतिमूर्ति बने अपना सवाल दोहरा रहे थे ।

“ऐसी कोई बात नहीं है । जो किस्मत में लिखा होता है वही होता है । इसमें किसी का क्या दोष ?” – बड़ी सफाई से जवाब दिया था मैंने । अन्दर की हलचल का अक्स चेहरे पर आने दिए बगैर । जब शिद्दत ज्यादा ही महसूस हुई तो ‘अम्मी कहाँ रह गई, देखकर आऊँ’ कहकर मैं उठ के चल दी थी । अन्दर के कमरे में जाकर खुद को व्यवस्थित किया था । और फिर वो लम्हा आया । वो लम्हा, जिसने मुझे समझाया की मुझ से मिलने तुम एक मुखौटा पहनकर आये थे । उदासी का मुखौटा, फर्जी शर्मिंदगी का मुखौटा । जब मैं वापस आ रही थी मैंने देखा की तुम अपनी दोनों आँखें जोर जोर से मसल रहे थे । ताकि वो सुर्ख हो जाती । मैंने तुम्हें थोडा वक्त दिया और पैरों की आवाज़ करती हुई लौटी ।

“आ रही है चाय ।” मैंने बताया। और दिल थाम के इन्तजार करती रही । इस बात का कि अब तुम कुछ कहोगे और मेरे शक को सही साबित कर दोगे । या फिर इस बात का कि तुम कुछ नहीं कहोगे और मेरे यकीन का मान रखोगे । लेकिन वो मनहूस दिन शायद सभी हिसाब एक ही झटके में करने पर आमादा था । तुमने कह ही दिया,

“शाद, मैं इतना परेशान हूँ कि कई रातों से सो नहीं पा रहा हूँ । देखो मेरी आँखें कितनी लाल हो रही है । ये बेतहाशा रोने की वजह से है । मैं तुम्हें कैसे बताऊँ कि मैं तुम्हारे बगैर जीने का तसव्वुर भी नहीं कर सकता था । लेकिन हालात ने मुझे मजबूर कर दिया । मुझे माफ़ कर दो।”

तुम्हें ये जानकर अजीब लगेगा अर्श के मुझे उस संजीदा घडी में भी मज़ाक सूझ गया था । मैं तुमसे कहने वाली थी के अब किताबी बातें कौन कर रहा है ? लेकिन फिर सोचा इससे तुम्हारे मुखौटे का रंग उड़ जाएगा । मैंने कुछ नहीं कहा । सिर्फ तुम्हें देखती रही थी । और तुम चेहरा ग़मगीन दिखाने के चक्कर में अजीब अजीब तरह की मुद्राएं बनाने लगे थे ।

फिर अम्मी आ गई और उन्होंने तुम्हे उस उलझन से निजात दिलाई । फिर तुमने चाय जैसे तैसे ख़त्म की । अम्मी से कुछ रस्मी बातें की और चले गए । उसके बाद तुम कभी नहीं लौटकर आये । हाँ, तुम्हारी शादी का कार्ड जरुर आया था । सुनहरे हर्फों में लिखा तुम्हारा नाम मैं देर तक छूती रही थी । अर्श वेड्स सना । कितना अजीब लग रहा था वो पढना । एक मज़े की बात बताऊँ ? तुम्हारी बीवी का नाम देखकर मुझे एक बेकार सी तुकबंदी भी सूझी थी । ‘तुम्हें मिल गई सना, और हम हो गए फना ।’ कैसी है ? बेकार है न ? समीरा बाज़ी भी यही बोली थी ।

खैर, उसके बाद की घटनाएं बड़ी जल्दी जल्दी हुई । तुम्हारी शादी हो गई । तुम देहरादून चले गए । गाहे बगाहे तुम्हारी ख़बरें मिलती रही और मैं उन्हें बिना कोई दिलचस्पी दिखाए सुनती रही । मैं फिर से अपनी किताबों की दुनिया में लौट गई । इस बार और शिद्दत के साथ ।

तुम्हें बताना नहीं चाहती के उस दिन तुम्हारे जाने के बाद मैंने आमिर का छोड़ा हुआ मुखौटा मेज़ की दराज़ में से निकाल कर देर तलक देखा था । और फिर उसे अपनी अलमारी में सहेजकर रख दिया था । अपनी डायरी प्यारी के साथ । पता है वो मुझे बेहद हिम्मत देता है । है न अजीब बात ? वो मुझे बताता है कि मुखौटा सब पहन के चलते है इस दुनिया में । लेकिन जरुरी नहीं कि हर एक का मुखौटा नुमायां हो । और ये भी जरुरी नहीं के हर एक मुखौटा डरावना हो । कई मुखौटे बेहद खूबसूरत शक्ल लिए होते है । अब ये आप पर है कि आप फरेब झेलने में कितने माहिर हो ।

और हाँ, उस दिन के बाद एक और तब्दीली भी आई है मुझ में । मैंने भी एक मुखौटा लगा लिया है । सदा खुश रहने वाला । पता है ये मुखौटा बेहद चमकीला है । इससे लोगों के अनचाहे सवालों से बचने में बड़ी मदद होती है । तुम्हारी शादी वाले दिन जब समीरा बाज़ी मुझे गले से लगाकर मेरे चेहरे पर कुछ ढूंढ रही थी तब भी मैंने यही मुखौटा लगा रखा था । बड़ा कामयाब रहा तजुर्बा ।उन्हें कुछ नहीं मिला । उनके चेहरे से झलकती फ़िक्र को राहत में तब्दील होते देखना बेहद अच्छा लगा मुझे । तब से मैंने इस मुखौटे को पक्का ही अपना लिया है । बहुत काम आता है कमबख्त ।

लेकिन एक बात बताऊँ ? जब सारी दुनिया नींद की आगोश में गर्क हो जाती है न तो रात के उस सन्नाटे में ये मुखौटा भी मेरा साथ छोड़ देता है । तब खुद का सामना करना बड़ा ही तकलीफदेह लगता है अर्श । और इसी वजह से मुझे रात से नफरत हो गई है । शदीद नफरत । क्या इसका कुछ उपाय हो सकता है ?

--------- ज़ारा अकरम खान

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