Saturday, March 14, 2009

जो सींच गए खूं से धरती

नई कलम का प्रयास लगातार दिन -ब - दिन सफल हो रहा है। उभरते हस्ताक्षर , अपने हस्ताक्षर दर्ज करा रहा है और अपनी आत्मा की आवाज़ को ज़माने के सामने ला रहा है। यही साहित्य का असली मकसद है। इसी कड़ी में आज " अदभुत" को पढ़ें। एक जोशीली नई कलम -

मेरे भारत की आजादी, जिनकी बेमौल निशानी है।
जो सींच गए खूं से धरती, इक उनकी अमर कहानी है।

वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे।
खुद अपने घर को जला-जला, मां को उजियारा देते थे।

उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी।
हर तूफानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी।

मॉ की खातिर लडते-लडते, जब उनकी सांसें सोई थी।
चूमा था फॉंसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी।

ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की।
है कौन कलम जो लिख सकती, गाथा उनकी कुर्बानी की।

पर आज सिसकती भारत मां, नेताओं के देखे लक्षण।
जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण।

जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं।
फिर निकल रात के साए में, ये खूनी खंजर बोते हैं।

अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा।
रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा।

डाकू भी अब लड़कर चुनाव, संसद तक में आ जाते हैं।
हर मर्यादा को छिन्न भिन्न, कुछ मिनटों में कर जाते हैं।

यह राष्ट्र अटल, रवि सा उज्ज्वल, तेजोमय, सारा विश्व कहे।
पर इसको सत्ता के दलाल, तम के हाथों में बेच रहे।

पूछो उनसे जाकर क्यों है, हर द्वार-द्वार पर दानवता।
निष्कंटक घूमें हत्यारे, है ज़ार-ज़ार क्यों मानवता।

खुद अपने ही दुष्कर्मों पर, घडियाली आंसू टपकाते।
ये अमर शहीदों को भी अब, संसद में गाली दे जाते।

गांधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, देखो छाई ये वीरानी।
अशफाक, भगत, बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी।

है कहॉं वीर आजाद, और वो खुदीराम सा बलिदानी।
जब लालबहादुर याद करूं, आंखों में भर आता पानी।

जब नमन शहीदों को करता, तब रक्त हिलोरें लेता है।
भारत मां की पीड़ा का स्वर, फिर आज चुनौती देता है।

अब निर्णय बहुत लाजमी है, मत शब्दों में धिक्कारो।
सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर गोली मारो।

हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे।
विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें।

मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूं।
यह परिवर्तन का क्रांति गीत, मां का चारण बन गाता हूं।

-अरुण "अदभुत"

8 comments:

  1. अब निर्णय बहुत लाजमी है, मत शब्दों में धिक्कारो।
    सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर गोली मारो।

    हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे।
    विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें।

    अंतिम पंक्तियाँ चेतावनी देती हुई, ललकार के साथ .
    एक अच्छी रचना.
    शाहिद "अजनबी"

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  2. आज भी वीर रस की कविता जिंदा है.
    बधाई हो
    एक अच्छी रचना

    रुबीना फातिमा "रोजी"

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  3. This is one of the best poems i have ever read. Cogratulations to you Mr. Arun and best wishes for future keep writing the same fire.

    Rajiv Kumar Bhatia

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  4. मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूं।
    यह परिवर्तन का क्रांति गीत, मां का चारण बन गाता हूं।

    ...WAKAI 'ADBHOOT'!!

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  5. सचमुच अद्भुत....

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  6. Wah ......... Arun Bhai Bahut hi Achhi kavita hai. Is prakaar ki kavitayen aksar kam padhne ko milti hain. Ek to is kavita me laybadhhata bhi hai or doosra aapne vishya bahut achha chuna hai.

    Really Unique.....

    Saurabh Gupta

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  7. अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा।
    रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा।

    बहुत खूब अच्छा व्यंग्य है .................. लगे रहिये कहीं तो असर होगा इस आवाज़ का

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  8. kya sahab aapki is kavita ne dil ko chhua to nahin lekin haan cheer ke jaroor nikal gayee, apka adha kaam to pura ho gaya ab dekhna ye hai ki hum par aur logon par iska asar kitni der rahta hai, sirf kavita padhne tak ya kuchh ghante, kuchh din ya vastav me kuchh asar iska paristithiiyon par bhi asar karta hai. samasya ye hai ki aisi kavitaon pe jo wah wah karte hain halat aur majbooriyon ki duhai deke wo bhi usi league me shamil ho jate hain jinke bare me ye adbhut poem hai. aur mujhe pata hai ki ye kadwa sach jaroor hai magar shayad mujhe bhi nahin pata ki main kis league me hoon kyonki meri tarah hi kai sare log abhi tak sirf ghar banane me hi lage hain desh banane ka waqt pata nahin kab ayega.

    main koshish karoonga ki kam se kam mere case me to aapka prayas khali na jaye

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