Monday, May 4, 2009

ग़ज़ल


जूनून इलाहाबादी जी का इस रचना के साथ ब्लॉग पर तहेदिल से स्वागत करें-


न कौम की बात करते हैं, न अमन को मुद्दा बनाते हैं,
हम होली में रंग खेलते हैं, ईद की खुशिया मनाते हैं।

हमारे शहर में सर के बोझ जैसा कुछ भी तो नहीं,
हमारे हाथ पत्थर भी तोड़ें, तो ये लब मुस्कुराते हैं।

यकीनन हम भी थकते हैं, इस जिंदगी की दौड़ में
ऐसे हालत होते हैं तो हम चाँद को छत पे बुलाते है.

किसी के नाम से हमको कोई सरोकार नहीं रहता,
किसी को दोस्त कह लेते हैं किसी को चाचा बुलाते हैं।

हमारे जज़्बात कितने मासूम है यहाँ आके देखिये,
अगर जिद पे आ गए तो हम सबको रुलाते हैं।

रुक रुक के हाल चाल ये लेना आदत है अपनी,
एक दूसरे को हम यहाँ अपनी याद दिलाते हैं।

"जूनून इलाहाबादी "

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