Monday, March 9, 2009

पहले मैं सोचती थी

"पहले मैं सोचती थी की प्यार का आनंद शादी के बाद की ही बात है किंतु वह शायद मेरे संस्कारों की बात थी ......अब सोचती हूँ , तुमने ठीक ही कहा है , जिस इन्सान को मैंने देखा तक नहीं , जाना तो बिल्कुल ही नहीं उसके एक इशारे पर कल रात को मैं अपना समूचा जिस्म सौंप दूंगी तो फ़िर तुमको तो मैं सारे तन मन से चाहती हूँ .....तुमसे ये परहेज क्यों ? चलो कहाँ चलना है ?"
- कृशन चंदर
( साभार - एक वायलिन समंदर के किनारे )

1 comment:

  1. dada, i don't remember any such line from ' ek vialin samundar....' by krishan chandar but the same line is in a story 'main nazia hi hoon' in samarlok magzine

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