Tuesday, March 31, 2009

महफिले ग़ज़ल

नई कलम - उभरते हस्ताक्षर आज से एक नया स्तम्भ प्रारम्भ करने कर रहा है- "महफिले ग़ज़ल"। यहाँ आप ग़ज़ल लेखन की बारीकियां जान पाएंगे। इस स्तम्भ को हम युवा कथाकार पंकज सुबीर जी की मदद से प्रस्तुत कर रहे हैं।
आशा करते हैं ,आप ग़ज़ल को बखूबी समझ पाएंगे। आप अपनी प्रतिक्रिया देकर सीधे सुबीर जी से सवाल -जवाब कर पाएंगे। आईये हम सब "महफिले ग़ज़ल" का लुत्फ़ उठायें।
स्वागत है आपका। "महफिले ग़ज़ल " पर जाने के लिए दायीं तरफ़ दिखाए "महफिले ग़ज़ल" पर क्लिक करें।

-सम्पादक

Saturday, March 28, 2009

कलम के जेहन से - सम्पादकीय

यकीन नहीं आता , विश्वाश नहीं होता की आज हम उसी भारत वर्ष में रह रहे हैं जो परम्परा और संस्कारों के लिए विख्यात है। पिछले दिनों एक बड़ी घटना प्रकाश में आयी। मुंबई का एक व्यक्ति अमीर बनने के लालच में अपनी ही बेटी की अस्मत से खेलता रहा। एक तांत्रिक के कहने पर लगातार वो ऐसा करता रहा। वो तो शुक्र है उस भले मानुस का जिसने इन्टरनेट के जरिये उसकी छोटी बेटी को समझाने दुनिया के सामने अपनी बात रखने का हौसला दिया।
इंसान दुनिया के किसी भी कोने में रहे मगर जब भी वो अपने घर के दरवाजे के अन्दर आता है उसे सुरक्षित होने का अहसास होता है। मगर ये दो बेटियाँ अपने ही घर की चारदीवारी में लुटती रहीं। अफ़सोस तो तब होता है जब पता चलता है इस घिनोने काम को अंजाम देने में उसकी माँ भी शामिल थी। एक माँ जो बेटी को नौ माह पेट में रखती है ,कैसे कैसे दर्द सहती है। जब पुरी दुनिया किनारा कर ले ऐसे में एक लड़की अपना आखिरी सहारा माँ का ही लेती है। उसी से अपना दर्द बाँटती है। मगर यहाँ तो मंजर ही कुछ और था। मार डालो ऐसी माँ को।
यहाँ रिश्ते शर्मशार तो हुए ही , उनके मायने ही बदल गए। हम अफ़सोस ही कर सकते हैं ,रो सकते हैं और कुछ भी नहीं। ऐसी कोई एक घटना नहीं। कई घटनाएँ हैं जो संस्कारों को नीलम कर रही हैं और हम सिर्फ़ कहकहे लगा रहे हैं।

शर्म कर ऐ भारतवासी - शर्म कर
कहाँ मर गया तेरा दिल , कहाँ मर गए तेरे संस्कार, कहाँ मर गए तेरे आसमानों से ऊँचे विचार। गुस्सा का आलम तो ये है - यूं. एस. ऐ. में बसे मेरे एक मित्र का घटना पर कहना था - हमारे ऊपर कोई एक ऐसा विस्फोट क्यों नहीं हो जाता की हम सब मर जाएँ।
और हमारी सरकार "जय हो" का नारा देती है तो उसका जवाब "भय हो " से दे दिया जाता है। और एक आम आदमी महज आम आदमी ही बना रह जाता है। देश को चलने वाले वोट बैंक की राजनीती में उलझे रहते हैं और देश की तरक्की दूर -दूर तक नज़र नहीं आती।
कब तक हम इस झूटी शान पे जीते रहें - की हम सबसे बड़े लोकतंत्र के वासी हैं। कभी ये ख्याल आ ही जाता है की कोई तानाशाह आए और देश के दगा बाजों को ख़त्म कर दे। हमें हमारा प्यारा भारत वर्ष वापस कर दे।
इसी उद्धरण में "मशाल" साहब की कविता प्रकाशित कर रहा हूँ।
"नई कलम -उभरते हस्ताक्षर" को आपका प्यार मिल रहा है। हमारा सहयोग करें। हमें आपकी प्रतिक्रियाओं और आपकी उपस्तिथि का इंतजार रहेगा। और एक बात जल्दी ही पंकज सुबीर जी हमारे मेहमान होंगे।
-शाहिद "अजनबी"

लजा गई अब लाज यहाँ

हय लजा गई अब लाज यहाँ
है हर मस्तक शर्मसार यहाँ,
बेटी को ख़तरा बाबुल से
प्रभु कर भी दो विध्वंश जहाँ।

जो नर्क यही दिखलाना था
अच्छा था कोख में मर जाना,
सब देह में सिमट गए बंधन
बस रिश्ता नर-नारी ही जाना।
जो घात करे अपने खूँ पे
उसको दुर्गा का सम्मान कहाँ?
प्रभु कर भी दो.......

हम भूल गए गौहरबानों?
या कथा शिवा की याद नहीं
क्या गोरा-बादल की तलवारें
मर्यादा कुल की याद नहीं?
फटती है छाती गंगा की
रोती है भरत की रूह यहाँ।
प्रभु कर भी दो.............

शिव-रूप पे लगे कलंकों को
कुचल-कुचल के नाश करो,
नापाक हुई इस धरती को
खल-रक्त से फ़िर से साफ़ करो।
जो हुआ विश्व-गुरु अपराधी,
आएंगे फिर ना राम यहाँ।
प्रभु कर भी दो..............

अब तो चेतो।

- दीपक चौरसिया "मशाल"

मधुर एहसास

चंचल मन के कोने मे
मधुर एहसास ने
ली जब अंगडाई,
रेशमी जज्बात का आँचल
पर फैलाये देखो फलक फलक...

खामोशी के बिखरे ढेरो पर
यादों के स्वर्णिम प्याले से
कुछ लम्हे जाएँ छलक छलक...

अरमानो के साये से उलझे
नाजों से इतराते ख़्वाबों को
चुन ले चुपके से पलक पलक...

ये मोर पपीहा और कोयल
सावन में भीगी मस्त पवन
रास्ता देखे कब तलक तलक...

रात के लहराते पर्दों पे
नभ से चाँद की अठखेली
छुप जाये देके झलक झलक...

- सीमा गुप्ता

Tuesday, March 24, 2009

सपनों में तुम

तुम बसी हो मेरे आसपास,
होकर मेरे कितने ही पास,
तुम्हें पाने में फिर भी हूँ
मैं नाकाम,
क्योंकि तुम
मेरे ख्यालों की दुनिया से
निकलती ही नहीं हो,
तुम हो तो सही पर
हकीकत में यहाँ नहीं हो।
मैं तुम्हें सोचता हूँ,
तुम्हें देखता हूँ
और समझता भी हूँ
पर कभी भी तुम्हें स्पर्श न कर सका,
अपने बाहुपाश में न भर सका।
हवा के एक झोंके सी तुम

पास होकर भी निकल गई
और मैं.....
ख्यालों में रह कर ही,
सपनों में तुम्हें पाकर भी,
तुम्हारे ख्यालों में गुम हो गया।
अच्छा न लगे शायद तुम्हें
मेरा छूना....
मेरा तुम्हें देखना.....
पर.... मैं तुम्हें
दिल के हाथों से छूना चाहता हूँ,
मन की आँखों से देखना चाहता हूँ।
आकर सपनों से हकीकत की जमीं पर
एक क्षण को.... कभी....
तुम वक्त को थाम लो,
भटकते नयनों की आत्मा को
जरा आराम दो।
फिर चाहे तुम
उन्हीं ख्यालों की वादियों में गुम हो जाना,
सपनों के संसार में छिप जाना।
मैं तुम्हारे
उस एक क्षण के स्वरूप को
अपने दिल में सजा लूँगा
और तुम्हें फिर से
ख्यालों की वादियों से निकाल कर,
सपनों के संसार से खोज कर
नजरों के बंद साये में
सदा-सदा को बसा लूँगा।

- डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

Monday, March 23, 2009

नज़्म

उन्हें डर नहीं की मर जायेंगे हम.....
वो डरते हैं कि कहीं जी ना लूँ मैं ज़िन्दगी....
ज़िन्दगी के लिए...

गिनते रहते हैं वो सांसों को भी हमारी....
कि कहीं ज्यादा न हो जाये वो.... ज़िन्दगी के लिए....
रोक तो लेती हूँ मैं दिल में उठते अरमानों को...
पर कैसे रोकूँ मैं धड़कन की आवाज़ को...

जुबाँ तो चुप है... खामोश हैं अब आँखें भी...
पर कैसे रोकूँ.... फिजाओं की तरन्नुम को...
बंद खिड़कियों से रुक तो जाती है... रौशनी
पर कैसे रोकूँ दरारों से आती... किरणों को..

जब भी उड़ने की... की कोशिश मैंने कभी...
रोका है तुमने हवाओं को...
काश तुम अँधेरे के अलावा...
कुछ... कोई और हक भी दे पाते दिन के लिए भी...

जो पढ़ लेते तुम मेरे मन के शब्दकोष...
तो यूँ ना ढूँढती मैं थोड़ी सी ज़िन्दगी......
ज़िन्दगी के लिए.....

- प्रिया - प्रिया, यूं. एस. ए.

Tuesday, March 17, 2009

ग़ज़ल

यूँ तो शबो - रोज़ वो पन्नों को काले किया करता है
लोग कहते हैं वो तो कविता लिखा करता है

जददो जहद तो ज़िन्दगी का हिस्सा हुआ करता है
जाने क्यूँ वो बार - बार किताबे ज़िन्दगी पढ़ा करता है

दिल में दर्द , आँखों में पानी और लव पे हलकी मुस्कराहट
अरे जनाब मुहब्बत के सफर में ऐसा ही हुआ करता है

ग़ज़ल और नज़्म लिखना तो एक बहाना है "अजनबी"
वो शायर तनहाइयों में हाले दिल लिखा करता है

- शाहिद "अजनबी"

Saturday, March 14, 2009

जो सींच गए खूं से धरती

नई कलम का प्रयास लगातार दिन -ब - दिन सफल हो रहा है। उभरते हस्ताक्षर , अपने हस्ताक्षर दर्ज करा रहा है और अपनी आत्मा की आवाज़ को ज़माने के सामने ला रहा है। यही साहित्य का असली मकसद है। इसी कड़ी में आज " अदभुत" को पढ़ें। एक जोशीली नई कलम -

मेरे भारत की आजादी, जिनकी बेमौल निशानी है।
जो सींच गए खूं से धरती, इक उनकी अमर कहानी है।

वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे।
खुद अपने घर को जला-जला, मां को उजियारा देते थे।

उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी।
हर तूफानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी।

मॉ की खातिर लडते-लडते, जब उनकी सांसें सोई थी।
चूमा था फॉंसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी।

ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की।
है कौन कलम जो लिख सकती, गाथा उनकी कुर्बानी की।

पर आज सिसकती भारत मां, नेताओं के देखे लक्षण।
जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण।

जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं।
फिर निकल रात के साए में, ये खूनी खंजर बोते हैं।

अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा।
रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा।

डाकू भी अब लड़कर चुनाव, संसद तक में आ जाते हैं।
हर मर्यादा को छिन्न भिन्न, कुछ मिनटों में कर जाते हैं।

यह राष्ट्र अटल, रवि सा उज्ज्वल, तेजोमय, सारा विश्व कहे।
पर इसको सत्ता के दलाल, तम के हाथों में बेच रहे।

पूछो उनसे जाकर क्यों है, हर द्वार-द्वार पर दानवता।
निष्कंटक घूमें हत्यारे, है ज़ार-ज़ार क्यों मानवता।

खुद अपने ही दुष्कर्मों पर, घडियाली आंसू टपकाते।
ये अमर शहीदों को भी अब, संसद में गाली दे जाते।

गांधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, देखो छाई ये वीरानी।
अशफाक, भगत, बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी।

है कहॉं वीर आजाद, और वो खुदीराम सा बलिदानी।
जब लालबहादुर याद करूं, आंखों में भर आता पानी।

जब नमन शहीदों को करता, तब रक्त हिलोरें लेता है।
भारत मां की पीड़ा का स्वर, फिर आज चुनौती देता है।

अब निर्णय बहुत लाजमी है, मत शब्दों में धिक्कारो।
सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर गोली मारो।

हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे।
विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें।

मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूं।
यह परिवर्तन का क्रांति गीत, मां का चारण बन गाता हूं।

-अरुण "अदभुत"

Monday, March 9, 2009

फिर बापू भी खुश होते

5 मार्च को बड़ी मेहनत और मशक्कत के बाद राष्ट्रपिता बापू का ऐनक, घडी , विजय माल्या की मदद से , 9 करोड़ में ,प्राप्त करने में हम सफल हो गए . काश हमने ये 9 करोड़, बापू के दीनों , प्यारों पर खर्च किये होते तो बापू भी खुश होते. हम भारतीयों की खुशखबरी की खबर पर दीपक चौरसिया "मशाल" की कविता आपके समक्ष रख रहा हूँ -

और हम बहुत खुश हैं
की अब फिर से
वो सब हिन्दोस्तान की अमानत हैं,
एक ऐनक,
एक घडी,
और कुछ भूला बिसरा सामान।
हमें प्यार है,
हमें प्यार है इन सामानों से
क्योंकि ,
ये बापू की दिनचर्या का हिस्सा थे।
पर ऐसा करने से पहले,
दिल में बैठे बापू से
एक मशविरा जो कर लेते
तो बापू भी खुश होते।

ये वो ऐनक है जिससे,
बापू सब साफ़ देखते थे।
पर हम नहीं देख सकते साफ़ इससे भी
इससे हमें दिखेंगे
मगर दिखेंगे हिंदू , दिखेंगे मुसलमान,
दिखेंगे सवर्ण, दिखेंगे हरिजन ,
दिखेगी औरत, दिखेगा मर्द,
दिखेगा अमीर, दिखेगा गरीब,
दिखेगा देशी और विदेशी।
मगर शायद बापू इसी ऐनक से
इन्सान देखते थे
और बापू के आदर्शों कि बोली
इक पैसा भी लगा पाते,
तो बापू भी खुश होते।

हम ले आये वो घड़ी
जिसमे समय देखते थे बापू,
शायद अभी भी दिखें उसमें
बारह, तीन छः और नौ,
हम देखते हैं सिर्फ आंकडे
पर क्या
बापू यही देखते थे?
या .......
वो देखते थे बचा समय
बुरे समय का,
और कितना है समय
आने में अच्छा समय.
वो चाहते थे बताना
चलना साथ समय के,
पर जो हम बापू के उपदेशों कि घडियां
इक पैसे में भी पा लेते,
तो बापू भी खुश होते।

जिसने दीनों कि खातिर,
इक पट ओढ़
बिता दिया जीवन,
उसके सामानों कि गठरी
हम नौ करोड़ में ले आये,
और हम बहुत खुश हैं.
जो उस नौ करोड़ से मिल जाती रोटी,
बापू के दीनों, प्यारों को
तो बापू भी खुश होते,
जो बापू के सामानों से ज्यादा
करते बापू से प्यार,
सच्चाई कि राह स्वीकार
तो बापू भी खुश होते
अभी हम हैं
फिर बापू भी खुश होते॥

- दीपक चौरसिया "मशाल"

पहले मैं सोचती थी

"पहले मैं सोचती थी की प्यार का आनंद शादी के बाद की ही बात है किंतु वह शायद मेरे संस्कारों की बात थी ......अब सोचती हूँ , तुमने ठीक ही कहा है , जिस इन्सान को मैंने देखा तक नहीं , जाना तो बिल्कुल ही नहीं उसके एक इशारे पर कल रात को मैं अपना समूचा जिस्म सौंप दूंगी तो फ़िर तुमको तो मैं सारे तन मन से चाहती हूँ .....तुमसे ये परहेज क्यों ? चलो कहाँ चलना है ?"
- कृशन चंदर
( साभार - एक वायलिन समंदर के किनारे )

तुम चाहो तो

एक अधूरे गीत का
मुखडा मात्र हूँ,
तुम चाहो तो
छेड़ दो कोई तार सुर का
एक मधुर संगीत में
मै ढल जाऊंगा ......
खामोश लब पे
खुश्क मरुस्थल सा जमा हूँ
तुम चाहो तो
एक नाजुक स्पर्श का
बस दान दे दो
एक तरल धार बन
मै फिसल जाऊंगा......

भटक रहा बेजान
रूह की मनोकामना सा

तुम चाहो तो
हर्फ बन जाओ दुआ का
ईश्वर के आशीर्वाद सामै फल जाउंगा.....

राख बनके अस्थियों की
तिल तिल मिट रहा हूँ
तुम चाहो तो
थाम ऊँगली बस
एक दुलार दे दो
बन के शिशु
मातृत्व की ममता में
मै पल जाऊंगा .....

- सीमा गुप्ता

Saturday, March 7, 2009

क्योंकि वो लड़की है

एक लड़की की कहानी ,लड़की की जुबानी , कहती हैं रुबीना फातिमा -
उसमें तिश्नगी भी है
उसमें ज़िन्दगी भी है
उसमें बंदगी भी है
क्योंकि वो लड़की है

वालदैन की फिक्र भी है
बहन का दर्द भी है
हमसफ़र की तड़प भी है
क्योंकि वो लड़की है

हाथ में छाले होश नहीं
रो - रो के ऑंखें लाल हुईं
ख़ुद से वो बेखबर सी है
क्योंकि वो लड़की है

इधर माँ के दर्द की कराह
उधर हमनशीं का पागलपन
न जाने कौन सी खलिश सी है
क्योंकि वो लड़की है

दुनिया से लड़ने को तैयार
क़दम - क़दम पे सिसकियाँ
मुस्कराहटों की जुस्तुजू सी है
क्योंकि वो लड़की है

नज़र बचाके कहाँ जाए
मुहब्बत से मामूर सीना कहाँ ले जाए
सरापा प्यार की पैकर सी है
क्योंकि वो लड़की है

क्रोशिया , फाउन्तैन, पेंटिंग
और क्या आता है तुम्हें
इन सवालों की झड़ि सी है
क्योंकि वो लड़की है

सर से ओढो दुपट्टा
घर से क़दम बाहर न निकालो
दिल में उठे तलातुम की लहर सी है
क्योंकि वो लड़की है

वो गज़लों की शान हुई
शायरों की ख्याल हुई
अदब में भी वो अदब सी है
हाँ है , वो लड़की है

- रुबीना फातिमा "रोजी"

Sunday, March 1, 2009

खूंखार हुए कौरव के शर

रदीफ़- काफिया को सँवारने वाले शायर की वीर रस की कविता को देखें -

खूंखार हुए कौरव के शर,
गाण्डीव तेरा क्यों हल्का है?
अर्जुन रण रस्ता देख रहा,
विश्राम नहीं इक पल का है।

तमतमा उठो सूरज से तुम,
खलबली खलों में कर दो तुम,
विध्वंस रचा जिसने जग का,
उसको आतंक से भर दो तुम.
ये दुनिया जिससे कांप रही,
उसको आज कंपा दो तुम.
कि हदें हदों की ख़त्म हुईं,
तुम देखो धैर्य भी छलका है। खूंखार हुए कौरव के शर, गाण्डीव तेरा क्यों॥

क्षण भर भी जो तुम ठहर गए,
ये धरा मृत्यु न पा जाये,
बारूद यहाँ शैतानों का,
मानव जीवन न खा जाये.
अमृत देवों के हिस्से का,
दैत्यराज न पा जाये,
पीड़ा ह्रदय की असाध्य हुई,
आँसू हर नेत्र से ढुलका है। खूंखार हुए कौरव के शर, गाण्डीव तेरा क्यों.....

क्यों खड़े अभी तक ठगे हुए,
अब कान्हा कोई न आयेगा,
थामो अश्वों की बागडोर,
ना ध्वजरक्षक ही आयेगा.
तुम स्वयं पूर्ण हो गए पार्थ,
अब गीता न कोई सुनाएगा,
जो ज्वालामुख ये दहक उठे तुम,
स्वर्णिम भारत फिर कल का है। खूंखार हुए कौरव के शर, गाण्डीव तेरा क्यों.....

- दीपक चौरसिया 'मशाल'